Town of Death CHAPTER - 14
☠ Town of Death ☠
अध्याय - १४
† ख़ुफ़िया द्वार †
By Mr. Sonu Samadhiya 'Rasik'
विक्रांत, अपने साथियों के साथ अपने बंगले पर पहुंच गया था। रोनित और रजनीश अपने हाथों में जलती हुई मसाल लिये और दूसरा मानव- भेड़िया साथी बेहोश अलका को अपने कंधे पर उठाये हुए, उसके पीछे चल रहा था।
विक्रांत ने बंगले का बाहर का दरवाजा खुला देख तो उसकी आँखे आशंकित हो चमक उठी।
उसे दाल में कुछ काला लगा।
शाम के लगभग सात बज रहे थे, सर्दी और कोहरा अपने सबाब पर थे। विक्रांत दौड़ता हुआ बंगले के अंदर गया और सीधा नेहा, प्रोफ़ेसर और प्रवीण के कमरे में झाँक कर देखा तो वहाँ किसी को न पाकर गुस्से से पागल होने लगा।
तभी उसे उसी कमरे के एक कोने में दीप्ति और निकिता बेहोश और रस्सियों में बंधी हुईं दिखीं तो उसे सब समझ में आ गया।
“रोनित.... तुम इन दोनों को रस्सियों से रिहा करो और रजनीश तुम, अंदर और बाहर देखो.. और जहाँ भी, कोई भी मिले उसे मार डालो, बेरहमी में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए, बस मेरी नेहा को कोई नुकसान मत पहुँचाना...”
“जी! मालिक..... ।”
“लगता है, आज सभी की मेरे हाथों मौत आई है” - विक्रांत ने गुस्से से दाँत पिसते हुए कहा।
“तुम.... मेरे साथ चलो! तहखाने में देखना पड़ेगा....”-तहखाने की ओर बढ़ते हुए विक्रांत ने कहा तभी वो रुका और बोला - “ पहले अलका को यहीं रस्सियों से बांध दो।”
अलका को रस्सी से बांध ने के बाद विक्रांत और उसका एक और साथी, जो एक मानव भेड़िया था, हाथ में मशाल लिए दोनों तहखाने में पहुंच गये।
विक्रांत ने मशाल के प्रकाश में देखा कि तहखाने में सारा सामान बिखरा पड़ा है, इसी दौरान विक्रांत के साथी की नजर जमीन पर पड़ी तड़प रही चुड़ैल पर गई।
“मालिक.....!”
“क्या हुआ?”
“वहाँ देखिए!” - विक्रांत के साथी ने रक्त - मंजरी की ओर नजरें गढा़ते हुए कहा।
उसकी नजरों का अनुसरण करते हुए विक्रांत ने जमीन पर पड़ी रक्त मंजरी को देखा, तो वो भौंचक्का और परेशान होकर मंजरी की ओर दौड़ा।
“माँ.. ऽऽऽऽ.. ।”
विक्रांत दौड़ कर जैसे ही मंजरी की ओर बढ़ा तभी एकाएक उसके पैर ठिठक गए, जैसे मानो उसके पैर जमीन में धँस गए हों।
मंजरी, कातर नजरों से विक्रांत की ओर देख रही थी, वो कराहने के अलावा कुछ बोल नहीं पा रही थी।
विक्रांत को समझने में देर नहीं लगी, उसने मंजरी के सीने पर रखी वो तिलिस्मी किताब की ओर देखा और अपने साथी को बोला - “ जाओ और जल्दी से उस किताब को वहां से हटा दो!”
“पर.....? मेरे मालिक.....!” - उस मानव भेड़िये ने झिझकते हुए कहा।
“मैंने जो कहा वो करो! जाओ.... ।” - विक्रांत ने अपने मानव भेड़िये साथी पर दबाब बनाया।
वह मानव भेड़िया खौफ़ से पसीना हो रही भयभीत शक्ल लिए और काँपते हुए पैरों से मंजरी चुड़ैल की ओर बढ़ा और जैसे ही उसने उस तिलिस्मी किताब को उठाने के लिए छुआ, जिसका डर था वही हुआ, उस मानव भेड़िये के हाथ जलने लगे।
असहनीय जलन से तड़प रहे, उस मानव भेड़िये ने किताब को उठाने का अपना फैसला बदलने की सोची, लेकिन तभी विक्रांत बोला - “ तुम कर सकते हो...! और ये मेरा तुम्हारे लिए हुक्म है ...।”
उस मानव भेड़िये ने उस किताब को असहनीय दर्द को सहते हुए उसे मंजरी चुड़ैल के सीने से अलग कर दिया, जिससे मंजरी ने राहत की साँस ली, लेकिन वह मानव भेड़िया अपने दोनों हाथों को खो चुका था। उसके दोनों हाथ गर्म लोहे के लावे के समान उस किताब की शक्ति से पिघल कर बह चुके थे।
विक्रांत, दौड़ कर मंजरी के पास पहुंच गया और उसका हाथ थाम लिया। मंजरी अपने सीने पर हाथ रख कर निरंतर खांसे जा रही थी, जैसे मानो किसी ने उसका गला दबा रखा हुआ हो।
तभी मानव भेड़िया जमीन पर गिर कर तड़पने लगा और चीखते हुए विक्रांत से बोला - मेरे मालिक...! अब मुझसे और दर्द सहन नहीं हो रहा.... प्लीज अब मुझे आजाद कर दो, जिससे मैं चेन की नींद सो सकूँ।”
विक्रांत, मंजरी के पास से खड़े होकर तड़प रहे उस मानव भेड़िये के जले हुए हाथों को घूरता हुआ उसके पास पहुंच गया।
विक्रांत उसके पास बैठ कर उसके जले हुए घाव देखते हुए उसके कंधे पर हाथ रखता है और उसके कंधे को थपथपाते हुए कहता है कि - “ तुम सही कह रहे हो, मेरे दोस्त! इस वक़्त तुम वाकई बहुत दर्द से गुजर रहे हो.... चलो मैं तुम्हें आजाद करता हूं।”
सहसा विक्रांत ने अपने नुकीले पंजों को उस मानव भेड़िये के सीने में घोंप दिया और एक पल में उसका दिल, उसके सीने को फाड़ते हुए बाहर निकाल दिया।
मानव भेड़िये के मुँह से खून उबाल मार कर बाहर निकल आया और देखते ही देखते उसकी आँखें हमेशा के लिए बंद हो गईं।
अपने साथी के पार्थिव शरीर की ओर घोर निराशा भरी दृष्टि डालते हुए विक्रांत गंभीर और क्रोधित हो उठा। क्योंकि आज उसे एक मामूली इंसान ने खुली चुनौती दी थी।
“माँ..... अब हमें यहाँ से चलना चाहिए। किताब की शक्ति की वजह से हमारी शक्तियाँ कमजोर पड़ रहीं हैं।” - विक्रांत, मंजरी को सहारा देते हुए कहता है।
“हाँ.... बेटा तुम सही कह रहे हो, बेटा...! अगर तुम सही वक़्त पर न आते तो मैं मर चुकी होती...।”
मंजरी अभी तक अर्ध चेतन अवस्था में थी।
“ऎसा मत कहो माँ! आप तो बस ये बताओ ये सब किसने किया? ये सब नामुमकिन है|”
“ये सब उस नेहा ने किया है।”
“क्या.....? कहीं उसे इस किताब की असलियत तो नहीं पता चल गई? और इसमें लिखी हम सबकी सच्चाई भी....?” - विक्रांत ने आशंकित होते हुए पूछा।
“मुझे ज्यादा नहीं पता... बेटा! बस इतना जरूर पता है कि उसको मेरे बारे में और इस किताब की शक्ति के बारे में पता चल गया है, क्योंकि वो मेरा नाम जानती है और मेरा सामना करने का मतलब, जो उसे इस किताब की शक्ति का पता होना दिखाता है।”
“उसके साथ और कौन आया था इस तहखाने में?”
“वो अकेली आई थी, वो भी उस किताब को लेने.... ।”
“इसका मतलब यह है कि उसे किताब के बारे में पहले से ही पता है। और मुझे पता है कि इस किताब के बारे में उसे शौर्य ने बताया होगा, उसकी जान उसी ने ही बचाई थी। लेकिन एक बात समझ में नहीं आई, शौर्य को कैसे पता चला कि ये किताब इस तहखाने में है?”
“क्यों कि इस किताब की शक्ति शौर्य पर भी उतना ही प्रभाव दिखाती है जितना कि हम पर... वो इस किताब की ऊर्जा मंडल को कोसों दूर से भांप सकता है।”
मंजरी ने अपनी शक्ति को आजमाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया और मेज पर रखे काँच के गिलास की पर अपना ध्यान केंद्रित किया। कुछ क्षण बाद गिलास हवा में तैरने लगा। जिसे देख मंजरी के विकृत होंठों पर मुस्कान नृत्य करने लगी। मंजरी ने दूर से ही हवा में तैर रहे गिलास को मसल दिया और गिलास टुकड़ा टुकड़ा हो कर नीचे जमीन पर बिखर गया।
“देखो... विक्रांत बेटा! मेरी शक्तियां अभी भी काम कर रहीं हैं।”
“माँ.... सुनो! मैंने ऎसे ही शक्ति मंडल को शौर्य के खंडहर में महसूस किया था।”
“क्या?”
“हाँ.. माँ!”
“क्या वो शक्ति मण्डल, उस किताब के शक्ति मण्डल के समान था?”
“पता नहीं माँ, बस वहाँ मैं बिलकुल कमजोर पड़ चुका था।”
“और शौर्य........?”
“उस पर कोई असर नहीं पड़ता... तभी तो वो सालों से वहाँ रहा है।”
“तो तुम्हें वहाँ जाने से परहेज करना चाहिए बेटा...।”
“हाँ... माँ, लेकिन शौर्य.... अपना सारा काम बिगाड़ रहा है। मुझे उस दिन उसे जिंदा नहीं छोड़ना चाहिए था।”
“तुम दोनों बेशुमार शक्ति के मालिक हो, तुम एक दूसरे को नहीं मार सकते। रही बात शौर्य के बीच में टांग अड़ाने की तो उसे कुछ भी करने के अपने बिल से बाहर आना ही पड़ेगा।”
“तो क्या हम उसे मार सकते हैं?”
“अरे नहीं...मैंने कहा न, तुम दोनों एक दूसरे को नहीं मार सकते।”
“तो फिर....?”
“उसे मौत से भी ज्यादा डरावनी सजा देंगें, जिससे उसका जर्रा जर्रा काँप उठेगा...। अब बातों में अपना समय जाया मत करो... जाओ और उन्हें ढूंढो... और हाँ अकेले मत जाना... अब तुम्हें शौर्य के साथ नेहा का भी खतरा है।”
“आप आराम करो.... मैं अभी उन सबको मज़ा चखाता हूँ.....।” - विक्रांत ने अपनी माँ रक्त मंजरी को बिस्तर पर लिटाते हुए कहा। उसकी आँखों में प्रतिशोध की ज्वाला धधक उठी।
“जल्दी करो... बेटा! कहीं नेहा शौर्य तक न पहुंच जाये और कल रात को पूजा भी करनी है जिसके लिए नर बलि की जरूरत पड़ेगी.... ।”
“जी माँ! एक लड़की तो मैं ला चुका हूं, वो अभी भी हमारी कैद में है और नेहा के साथ प्रवीण और सुशील राणा है उन तीनों को, मैं अभी पकड़ लाता हूँ।”
“दीप्ति और वो तेरी बहन, रागिनी कहाँ है?”
“दोनों बेहोश हैं माँ... उन तुच्छ इंसानों ने उन्हें घायल कर दिया और वो अब निकिता है माँ... रागिनी नहीं... वो मेरी पिछले जन्म की बहन है, न कि इस जन्म की। वक़्त आने पर मैं उसे भी मार डालूँगा...।”
“ये क्या कह रहे हो तुम विक्रांत....?”
विक्रांत बिना कोई उत्तर दिए उस कमरे से बाहर चला गया।
बाहर आते ही विक्रांत ने रजनीश और रोनित को आवाज लगाई -
“चलो अब तुम्हारे साथियों को ढूंढने का वक़्त आ गया है!”
नेहा, प्रवीण और प्रोफेसर अंधेरे में धुंधली और अदृश्य मोहिनीगढ़ की अपरचित गलियों में भटक रहे थे।मोहिनीगढ़ का तापमान शरीर को जमा देने वाला था। घने कोहरे और चौदस की रात के अंधकार में मोहिनीगढ़ विलुप्त सा हो गया था। वीरान और खंडहर पड़े मोहिनीगढ़ के घर खाने को दौड़ रहे थे। रही कसर भेड़ियों की आ रही आवाजों ने पूरी कर दी थी।
तीनों अपनी जान बचाने के लिए लगातार अपरचित और अनियमित रास्तों और गलियों में भटक रहे थे। तभी नेहा ने अपनी आंखे बंद की और शौर्य के साथ हुई अपनी बातों को याद करने लगी। उसे याद आया कि शौर्य ने उसे मिलने के लिए एक रास्ता बताया था।
“क्या हुआ नेहा? तुम अचानक से क्यूँ रुक गई?” - प्रवीण ने नेहा के पास आकर पूछा।
“तुम ठीक तो हो नेहा?”
“जी सर!”
“तो फिर क्या? चलें.... ।”
“हाँ नेहा, प्रवीण सही कह रहा है, हमारा अब यहां कहीं भी रुकना सही नहीं है, जब तक कि शौर्य न मिल जाये।”
“सर...! शौर्य ने कहा था कि अगर मुझे उससे मिलना हो तो मुझे सच्चे मन से आवाज लगाना, मैं उसी वक़्त तुम्हारे पास आ जाऊँगा।”
“ये कैसे संभव है नेहा।”
“ये क्या बकवास है, शौर्य या तो भगवान है या फिर हमारे साथ ऎसे हालातों में घटिया मज़ाक.... ।”
“अरे रूको यार! इस तरह भटकने से अच्छा है, ये ट्रिक ही आजमाई जाये। एक सेकंड.... मुझे फोकस करने दो... ।” - नेहा ने अपनी दोनों आँखे बंद करके एक लंबी साँस ली।
“ठीक है करो कोशिश.... ।”
“तब तक मैं कोई दूसरी गली या रास्ता देख लेता हूँ।”
“प्रवीण! रुको मुझे लगता है कि हम सबको साथ में रहना चाहिए।”
“हाँ डेड, मुझे पता है, मैं ज्यादा दूर नहीं जा रहा, यहीं हूँ.... ।”
नेहा ने अपना ध्यान केंद्रित किया तो उसकी आँखों के सामने उसके साथ घटी हर घटना चलचित्र की भाँति चलने लगी कुछ अन्तराल के बाद उसे वह घटना दिखी जब वह शौर्य से मिली थी। उसे लगा मानों वो उसकी कोई कल्पना न हो कर हकीकत हो जैसे।
शौर्य को देख कर नेहा के चेहरे पर मुस्कान के साथ उम्मीद की एक नई किरण जगी।
शौर्य भी नेहा की ओर मुस्कुराते हुए बोला - “आख़िरकार आपको मेरी याद आ ही गई।”
“हाँ... शौर्य प्लीज मेरी मदद करो। हम सबको तुम्हारी बहुत जरूरत है।”
इतना सुनते ही शौर्य के चेहरे पर मुस्कान की जगह उदासीनता ने ले ली, वो बिना कुछ बोले नेहा की आंखों में एक टक देखे जा रहा था... एकदम से शांत और गंभीर...।
नेहा के चेहरे पर भी उम्मीद की जगह एक अंजान भय ने ले ली थी। वो भी बिना कुछ बोले शौर्य की और डरते हुए देखे जा रही थी। तभी शौर्य की आंखों की रंगत में परिवर्तन के साथ उसकी सामान्य सांसें भारीपन और कर्कशता में परिणित हो चुकीं थीं।
शौर्य को देख कर नेहा की रूह कांप उठी, क्योंकि उसके सामने अब शौर्य एक खूंखार भेड़िये का रूप अख्तियार कर चुका था। नेहा कुछ सोचती या करती तब तक शौर्य ने गुर्राते हुए नेहा पर हमला कर दिया। नेहा ने चीखते हुए अपनी दोनों आंखें बंद कर लीं।
“क्या हुआ नेहा.....? तुम ठीक तो हो न?” - प्रोफेसर ने नेहा को होश में लाते हुए कहा।
नेहा ने अपनी आँखे खोली तो पता चला कि वो न जाने कब हकीकत से सपनों में जा पहुंची थी।
“कुछ नहीं हुआ सर! चलो हमें खुद ही कुछ करना होगा, यहाँ कोई नहीं आने वाला हमें बचाने के लिए... क्योंकि इस मनहुश मोहिनीगढ़ में कोई इंसान है ही नहीं बल्कि सब के सब हैवान हैं.... ।”
नेहा की उम्मीद टूट चुकी थी, साथ ही नेहा को आत्मग्लानि हुई कि वह शौर्य, जो उसके लिए अपरचित था। उससे उम्मीद न जाने क्यूँ कर रही थी?
नेहा ने मन ही मन सोचा कि यहाँ सब बहरूपिया हैं, ये प्यार, परवाह और भरोसा सब भ्रम है, यहां सब खेल सम्मोहन (hypnotizem) का है, जिससे ये शिकारी अपने शिकार को अपने जाल में फांसते हैं। विक्रांत ने भी उसके साथ यही किया था।
नेहा का दिल टूट चुका था, वो व्यथित हो प्रोफेसर की ओर देखती है, प्रोफ़ेसर भी निराश और दुखी दिख रहे थे। जैसे मानों उन्होनें नेहा के मन को पढ़ लिया हो।
नेहा और प्रोफेसर की मनोदशा देख कर प्रतीत होता था कि वो दोनों मोहिनीगढ़ में खुद को बेसहारा महसूस कर रहे थे।
“सर! अब क्या होगा?.... यहाँ हमारा कोई नहीं है।” - नेहा की आँखो से आंसू छलक आये और आवाज गले में ही रुंद गई। वो हताश हो चुकी थी। उसे मौत के सिवाय, दूसरा कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था।
“अरे! डोंट सेड माइ चाइल्ड.... कम हियर..”- प्रोफ़ेसर ने नेहा को गले लगा लिया और उसके सिर को सहलाते हुए कहा - “चिंता मत करो... हम सब साथ हैं, जो भी होगा देखा जाएगा ... इस तरह हार नहीं मानते... ईश्वर जरूर कोई न कोई रास्ता जरूर निकालेगा... भरोसा रखो उस पर... अभी तक उसने, हम सबको जिंदा, मारने के लिए थोड़े ही रखा है।”
“पर सर.....?”
“नेहा यू आर स्ट्रॉंग एंड ब्रेव गर्ल.... याद करो तुमने कैसे दीप्ति, निकिता और उस चुड़ैल को धूल चटा दी। तुमने ऎसा काम किया है, जो न मैं और न ही प्रवीण कर सका। हिम्मत रखो और चलते रहो, कोई न कोई रास्ता जरूर मिलेगा!”
इसी दौरान प्रवीण की नजर पास की संकरी गली के एक हिस्से पर गई, जो हल्की सी रोशनी से रोशन दिख रहा था।
निर्जन और सालों से वीरान पड़े मोहिनीगढ़ में कोई और भी रहता है, जो यहां किसी घर में अपना आशियाना बनाए हुए है? प्रवीण के दिमाग में उस रोशनी को देख कर कई सवाल आने लगे।
उम्मीद और जिज्ञासा ने प्रवीण को उस दिशा में जाने के लिए उकसाया। प्रवीण ने उस जगह पर जाकर सहायता की तलाश करने से पहले प्रोफेसर और नेहा की ओर अपनी नजर दौड़ाई। नेहा और प्रोफेसर दूर खड़े आपस में बातें कर रहे थे। तब तक प्रवीण ने सहायता के लिए गली के उस रोशन हिस्से की ओर अपने कदम बढ़ा दिए।
तीन चार कदम चलने के बाद प्रवीण खंडहर पड़े एक घर के सामने पहुंच गया। जिसमे टूटे हुए किबाड़ के एक बड़े से छेद से रोशनी निकल रही थी। जो घर के अंदर से आ रही थी। शायद किसी ने घर के अंदर मशाल जला रखी थी।
'पर किसने मशाल जलाई, घर के अंदर....?ʼ
इसी सवाल का जवाब पाने के लिए प्रवीण ने आहिस्ता आहिस्ता अपने दोनों हाथों से उस घर के टूटे हुए खस्ता हालत में लगे किबाड़ों को हल्के से अंदर की ओर धकेलना शुरू कर दिया, जिससे किबाड़ आवाज न करे।
प्रवीण ने जैसे ही किबाङों पर अपने हाथों से दबाव डाला तो उसके हाथ में टूटे हुए किबाड़ की कोई नुकीली चीज चुभ गई, जहाँ पर उसने कुछ देर पहले चाकू से चीरा लगाया था। नुकीली चीज चुभने से प्रवीण के हाथ से फिर से खून रिसने लगा। तेज चुभन और जलन से प्रवीण ने जल्दी से अपना हाथ किबाड़ से हटा लिया।
“ओह सिट..... आह...!”
प्रवीण ने अपने हथेली से खून रिसते देख उसे दबा कर खून को रोकने की कोशिश करने लगा। प्रवीण के होश का ठिकाना तब न रहा जब किबाड़ अपने आप तेज आवाज करते हुए खुल गए।
प्रवीण के कदम स्वतः पीछे हट गए। और वह गली की दूसरी ओर दीवार से सट कर खड़ा हो गया। खौफ़ से फटी आंखों से प्रवीण ने घर के अंदर का नजारा देखा जो सामान्य मालूम पड़ता था।
घर में सामने की दीवार पर एक मशाल कोहरे की बारीक बूंदों को उड़ा रही हवा के थपेड़ों में जलने की जद्दोजहद कर रही थी।
घर का फर्स बर्फ की सफेद चादर से ढँका हुआ था, सामने की दीवार के अलावा घर के अंदर का कोई भी हिस्सा नहीं दिख रहा था। घर के अंदर पर्याप्त उजाला घर में कई मशालों के एक साथ जलने को दर्शा रहा था।
प्रवीण ने डरते हुए उस द्वार से घर अंदर झांक कर देखा तो, वो घर से ज्यादा कोई गली सी जान पड़ रही थी, क्योंकि घर की सामने वाली दीवार के अलावा दूर दूर तक कोई और दीवार नजर नहीं आ रही थी।
जैसे ही प्रवीण उस घर के अंदर दाखिल हुआ तो कुछ पल के लिए उसे लगा जैसे वह समय यात्रा करके कोई दूसरी दुनिया में पहुंच गया है।
बर्फ की सफेद चादर उसकी उम्मीद से कई गुना ज्यादा मोटी थी, जिसे वो अपने पैरों से महसूस कर सकता था।
स्नो फॉल भी बाहर की तुलना में ज्यादा था, वहाँ.... ।
प्रवीण ने देखा कि वास्तव में वह कोई घर नहीं पुराने जमाने की गली जैसी जगह है, जहां पर जगह जगह पर कतार में कई मशालें जल कर उस जगह को रोशन कर रहीं हैं।
प्रवीण खुद को विचित्र और बिल्कुल अलग जगह पर पाकर अचंभित था। प्रवीण ने अपनी नजर ऊपर डाली तो देखा कि ऊपर कोई छत न होकर एकाध तारे टिमटिमा रहे थे। ये नजारा देख कर प्रवीण को पूरा यकीन हो गया कि वह जहां खड़ा है वो कोई घर नहीं बल्कि एक गली है, वो भी रहस्यमयी या फिर वह मोहिनीगढ़ के सीमा को पार कर चुका है शायद...
प्रवीण ने उस विचित्र और रहस्यमयी जगह के बारे में नेहा और प्रोफेसर को बताना चाहा। जैसे ही वो द्वार की ओर बढ़ा, तो उसे पीछे से किसी के गुजरने की आहट सुनाई दी, प्रवीण ने तुरंत मुड़कर देखा तो वहाँ कोई नहीं था। प्रवीण का गला सूख चुका था। प्रवीण ने अपनी नजरें चारों ओर घुमाईं।
तभी फिर से उसे किसी के आने की आहट सुनाई दी तो खौफ से उसके पैर हिल गए उसका शरीर सुन्न पड़ गया।
सामने उसे एक व्यक्ति उसकी ओर आता हुआ दिखा, उसके हाथ में एक लालटेन और लाठी थी।
मोहिनीगढ़ तो सालों से वीरान पड़ा है। तो फिर ये इंसान कौन है? कहीं ये भी कोई वेयरवुल्फ तो नहीं है? ये विचार आते ही प्रवीण ने अपने खून से सने हाथ को पीछे छिपा लिया।
“बेटा.. तुम कौन हो?” - उस बूढ़े व्यक्ति ने लालटेन को प्रवीण के चेहरे के नजदीक लाते हुए पूछा।
शायद उस बूढ़े व्यक्ति को जरा दृष्टि दोष था, जिससे उसकी दृष्टि कमजोर पड़ चुकी थी।
“बाबा मैं प्रवीण हूँ... बाबा अभी हम कहाँ हैं?”
“इसका मतलब तुम यहाँ भटक चुके हो....?”
“हाँ, कुछ ऎसा ही समझ लो बाबा.... वैसे आप कौन हो और इस वक़्त ऎसी सर्दी में यहाँ क्या कर रहे हो आप?”
“मेरा नाम भोगीराम है और मैं अपने बेटे बेनीराम को ढूँढ रहा हूँ, मैं पास के ही गाँव सुराईपुर का हूँ।”
“इसका मतलब यह है कि हम अभी भी मोहिनीगढ़ में ही हैं।”
“हाँ....”
भोगीराम ने प्रवीण के पास जाकर उसके द्वारा पीछे छुपाय गए हाथों को लगभग झाँकते हुए पूछा - “पीछे क्यूँ छुपा रहे हो? घाव गहरा है क्या? दिखाओ मुझे...... ।”
“ऐ.... ये क्या कह रहे हो तुम?.... मैं ठीक हूं...” - प्रवीण ने डरते हुए अपने कदम पीछे खींच लिए। तभी उसकी नजर उस बूढ़े व्यक्ति के पैरों पर गई, जो सामान्य इंसान जैसे न हो कर भेड़िये की तरह थे। प्रवीण को समझते देर नहीं लगी कि वह कोई इंसान नहीं बल्कि एक वेयरवुल्फ है।
प्रवीण ने अपनी पिस्तौल भोगीराम की ओर पॉइंट कर ली।
“आगे मत बढ़ना.... मैं सूट कर दूँगा।”
“बेटा.... मैं तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाउंगा... बस एक बार... मुझे अपनी प्यास बुझा लेने दो।” - भोगीराम ने अपने होठों पर जीभ फेरते हुए कहा।
भोगीराम, अब एक आदमखोर भेड़िये में बदलने लगा।
“मैंने कहा... मैं सच में गोली मार दूँगा।” - प्रवीण ने अपने काँपते हुए कदम पीछे खींचते हुए बोला।
वो डरते हुए द्वार की ओर बढ़ रहा था, जिससे वो भाग कर नेहा और प्रोफेसर के पास पहुंच जाए।
भोगीराम इंसानी खून की गंध से बेकाबू होता जा रहा था। अब उसके सब्र ने क्रोध का रूप धारण कर लिया था।
“ये ख़ुफ़िया द्वार, शिकारों को फंसाने के लिए है। अब तुम वापस नहीं जा सकते, जैसे मैं सालों से अपने बेटे का इंतजार कर रहा था और इस मोहिनीगढ़ ने उसे भी एक दिन निगल लिया। सच कहूं अब मेरा कोई नहीं है और न ही मुझे अब किसी से वास्ता रहा.... सिवाय मेरी प्यास, इंसानी खून और गोश्त के..... बेनीराम को मोहिनीगढ़ ने नहीं, बल्कि मैंने ही मारा था, अपने किसी के खून की बात ही कुछ और है।”
जैसे ही भोगीराम गुर्राते हुए प्रवीण पर लपका, तो प्रवीण ने भी बिना देरी किए उस पर गन से फ़ायर कर दिया और गोली भोगीराम के सीने की आर पार हो गई।
भोगीराम गोली की वजह से दूर बर्फ़ के ढेर पर जा गिरा।
गोली की आवाज़ सुनकर नेहा और प्रोफेसर आवाज की दिशा में दौड़े।
भोगीराम खुद पर हुए हमले से तिलमिला उठा, जिससे उसके क्रोध की ज्वाला और ज्यादा भड़क उठी।
भोगीराम अब पहले से भी ज्यादा और डरावना और आक्रामक हो गया, वह गुर्राता हुआ प्रवीण पर झपटा, लेकिन प्रवीण ने इस बार मानव - भेड़िये के हमले से खुद को बचाकर उस पर गन से एक साथ कई फ़ायर कर दिए।
प्रवीण वहाँ से भागने की ताक में था।
भोगीराम फिर से प्रवीण पर हमला करता कि तभी उसके पीछे से कोई चीज तेजी के साथ गुजरी।
भोगीराम ने अपने पीछे देखा तो कोई नहीं था, जिससे वो अचंभित हो गया और अपने सामान्य रूप में आकर उसने अपने बेटे बेनीराम को आवाज लगाई, उसे लगा शायद उसका बेटा उसके शिकार की आहट पाकर उसके पास आया होगा।
“बेनीराम क्या तुम हो यहाँ? देखो मुझे एक इंसानी शिकार मिला है..... आओ मिलकर ताजे खून और गोश्त का मज़ा लेते हैं।” - भोगीराम ने अपने चारों ओर देखते हुए कहा।
प्रवीण की नजर उस ख़ुफ़िया द्वार पर थी, जहाँ से वो आया था। भोगीराम और प्रवीण, दोनों में से भोगीराम उस द्वार के नजदीक था, जो प्रवीण के लिए बुरी बात थी।
“बेटा....! बेनीराम क्या तुम मेरी बात सुन रहे हो? अगर तुम मेरी बात सुन रहे हो तो आ जाओ, डरने की कोई बात नहीं है, मेरे होते हुए ये इंसान तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता.... डरो मत अबकि बार मैं तुम्हें नहीं काटूंगा।” - भोगीराम की नजरें बेनीराम को तलाश रहीं थीं।
तभी अँधेरे से किसी खूंखार बहसी दरिंदे जैसी किसी जानवर के गुर्राने की आवाज सुनाई दी। जिससे भोगीराम हैरान हो गया, लेकिन प्रवीण की तो डर से जान निकली जा रही थी।
“कौन है वहाँ?” - भोगीराम ने गुस्से में पूछा।
“क्या.....? तुम्हें नहीं पता वहाँ कौन है?” - प्रवीण डर से दीवार से चिपक कर खड़ा हो गया।
प्रवीण के सवाल का भोगीराम पर कोई असर नहीं पड़ा। वो बस अपने सवाल के जवाब की प्रतीक्षा कर रहा था।
“मेरे मालिक क्या आप हैं?” - भोगीराम ने विनम्रता भरे शब्दों में पूछा।
“कौन मालिक....?.... कहीं विक्रांत तो नहीं है न तुम सबका मालिक?” - प्रवीण ने अपनी भोहें सिकोड़ते हुए प्रश्न किया।
“ये लड़के! तू विक्रांत को कैसे जानता है, जल्दी बता? नहीं तो मैं तुझे जिंदा चबा जाऊंगा।” - भोगीराम ने गुर्राते हुए कहा।
“वो.... मैं... वो मैं उससे बच कर भाग आया हूँ।” - डरते हुए प्रवीण के हाथों से रिवाल्वर नीचे गिर गई।
भोगीराम मुस्कुराता हुआ प्रवीण की ओर आगे बढ़ते हुए बोला - “इसका मतलब यह है कि तू मेरे मालिक का शिकार है, अगर मैं, तुझे अपने मालिक विक्रांत को सौंप दूं, तो वो खुश हो कर मुझे शिकार के लिए इससे बढ़ा इलाका दे देंगें और साथ ही मुझे वो मुझे दिन में बाहर निकलने का नुस्खा भी दे देंगे। अब तो तेरा मरना तय है,लड़के हा हा हा...।”
भोगीराम फिर से अपने मानव भेड़िये वाले रूप में आ चुका था।
प्रवीण को मारने का मूड बनाकर भोगीराम जैसे ही प्रवीण पर झपटा, तभी अंधेरे से एक मानव - भेड़िये की शक्ल में एक जीव भोगीराम की गर्दन को बीच में ही दबोच कर उठा लेता है और अपने बड़े - बड़े नुकीले दांतों से भोगीराम के गले को दहाड़ते हुए फाड़ देता है, भोगीराम के मुंह और गर्दन से खून का फब्बारा फुट पड़ा।
अपने हाथों में भोगीराम को टांगे हुए उस दरिंदे ने भोगीराम के कांपते हुए क्षित - विक्षित शरीर को जमीन पर गिरा दिया।
ऎसे खौफनाक मंजर को देख कर प्रवीण ने अपनी आंखें और कान बंद कर लिए।
जमीन पर पड़ा भोगीराम का लहूलुहान शरीर कुछ क्षण तड़पने के बाद हमेशा के लिए स्थिर और शांत हो गया।
प्रवीण को अपनी ओर आती हुईं उस बहसी दरिंदे जैसे जीव की आवाजें सुनाई दे रहीं थीं। प्रवीण का दिल खौफ़ से फटा जा रहा था। वो बुरी तरह से कांप रहा था। वो रोते हुए उस अंजान जीव से अपने जान की भीख मांग रहा था।
तभी प्रवीण के कानों में नेहा और प्रोफेसर की आवाज पड़ी।
प्रवीण ने घबराकर अपनी आंखें खोली तो सामने प्रोफेसर और नेहा उस ख़ुफ़िया द्वार से होते हुए उसकी ओर आ रहे थे।
“तुम यहाँ क्या कर रहे हो प्रवीण?”
“मैं और सर तुम्हें कब से ढूंढ रहे थे, बिना बताए तुम यहाँ क्या कर रहे हो? सबको साथ में रहना चाहिए।”
प्रवीण बिना कुछ बोले प्रोफेसर और नेहा को अपनी ओर आते हुए देख रहा था।
अचानक वो खड़ा हुआ और दौड़ते हुए प्रोफेसर के गले लग कर रो पड़ा।
“डेडी प्लीज मुझे बचा लो.... मैं मरना नहीं चाहता।”
“क्या हुआ प्रवीण डरो मत! बताओ मुझे.... अब हम सब साथ है देखो...।” - प्रोफेसर ने प्रवीण को समझाते हुए कहा।
“शौर्य.......!”
शौर्य को अपनी ओर आते देख, नेहा के मुंह से सहसा उसका नाम निकल पड़ा।
प्रोफेसर और प्रवीण ने, सामने एक टक देख रही नेहा की नजरों का अनुसरण करते हुए देखा तो शौर्य, नेहा की ओर मुस्कुराता हुआ उनकी ओर आ रहा था।
शौर्य को देख कर नेहा सब कुछ भूल कर दौड़ कर शौर्य के गले से लिपट गई। उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।
“आख़िरकार तुम आ ही गए.... ।”
“आप बुलाओ और मैं न आऊँ ये कभी हो सकता है भला...... ।” - शौर्य, नेहा के कान में फुसफुसाया। “थैंक्स बोलने की जरूरत नहीं है...., हैलो प्रोफेसर.. कैसे हो आप?” - इतना कहता हुआ शौर्य, प्रोफेसर और प्रवीण की ओर बढ़ गया।
“थैंक्स क्यूँ न बोलूं...?” - नेहा ने मुड़ते हुए शौर्य से कहा।
“क्यों कि मैंने ही बोला था आपको, बुलाने के लिए..... ।” - शौर्य ने अपना मुँह साफ करते हुए कहा।
शौर्य ने एक टक प्रवीण की ओर देखा जो भयाक्रांत हुआ उसे ही देख रहा था। शौर्य ने मुस्कुराते हुए प्रवीण के कंधे पर हाथ रखा और उसे थपथपाते हुए कहा - “प्रवीण....! अब तुम भी भेड़ियों को मारना सीख ही लो।”
“तो तुम ही हो शौर्य, जिसका जिक्र नेहा हमेशा अपनी बातों में किया करती है।”
“ओ! अच्छा... ऎसा क्या?” - शौर्य ने हंसते हुए नेहा की ओर देखते हुए कहा। “हाँ..... मैं ही हूँ.. शौर्य!!!”
“शौर्य, ये जगह कौन सी है क्या ये मोहिनीगढ़ से बाहर निकलने का रास्ता है?”
शौर्य ने देखा तो नेहा उस ख़ुफ़िया रास्ते का मुआयना कर रही थी। जिसे देख कर प्रोफेसर उसके पास पहुंच गए। लेकिन प्रवीण स्तब्ध खड़ा शौर्य की ओर देख रहा था। इसी दौरान शौर्य की नजर प्रवीण पर गई तो खुद को उसे एक टक घूरते हुए देखा तो वो कहता है।
“ओ हैलो.... क्या? मुझे ऎसे घूरना बंद करो.... मैंने तुम्हारी जान बचाई है इसके लिए मुझे थैंक्स बोल सकते हो ओके... ।”
“कौन हो तुम....?”
“थैंक्स की कोई बात नहीं है, ये तो मेरा फर्ज़ है... चलो चलते हैं, जिससे पहले विक्रांत यहां पहुंचे, हमें यहां से निकल जाना चाहिए।” - शौर्य प्रवीण की बातों को अनसुना करते हुए नेहा और प्रोफेसर के पास पहुंच जाता है।
“हाँ ये एक खुफ़िया रास्ता है और जिस द्वार से तुम लोग आए थे वो एक खुफ़िया द्वार है, मैं तुम लोगों को विक्रांत के यहां आने से पहले दूसरे रास्ते से सुरक्षित जगह पर ले जाऊंगा, क्योंकि यह रास्ता एक भूल भुलैया है जो तुम लोगों को मोहिनीगढ़ के बीचोंबीच पहुंचा देगा, जहां से बापस लौटना तुम लोगों का नामुमकिन है। शिकार को फांसने के लिए मोहिनीगढ़ में ऎसे हजारों की संख्या में खुफिया द्वार हैं।”
“क्यूँ.... नामुमकिन क्यूँ है?”
“क्यों कि वहाँ कई अभिशापित मानव - भेड़िये हैं, जो कई सालों से इंसानी खून के प्यासे हैं और खून की कमी से लगातार कमजोर और मर रहें हैं।”
“ओह....!”
“जी.... हाँ।”
“शौर्य, अब तुम हम सबको कौन सी जगह ले जाने वाले हो?”
“प्रोफेसर! मैं आपको........!”
“शौर्य तुम अगर सच में हम सबकी जान बचा ही रहे हो तो, किसी जगह पर ले जाने बदले हमें मोहिनीगढ़ से बाहर निकलने में ही मदद कर दो।” - प्रवीण ने कहा।
“वो तो कर देता मैं, लेकिन जब तक तुम मोहिनीगढ़ की सीमा पार करोगे, तब तक विक्रांत तुम सबको पकड़ लेगा या फिर वो चुड़ैल तुम सबको शापित कर देगी। क्योंकि वो हर जगह है सिवाय एक जगह के...... ।”
“....... अगर तुम लोग मोहिनीगढ़ के सीमा पार कर भी लोगे तो नेहा कभी भी तुम्हारे साथ नहीं जा पायेगी क्योंकि वो शापित है और सीमा पार करते ही उसका शरीर फट जाएगा। अगर तुम लोग अपनी जान बचाने के लिए नेहा की जान जोखिम में डालने को तैयार हो तो कोई नहीं, मैं सबको आज रात को ही मोहिनीगढ़ की सीमा तक पहुंचा दूँगा। वैसे मैं पहले भी नेहा को सीमा के दुष्प्रभाव से बचा चुका हूँ। उस दिन नेहा मोहिनीगढ़ की सीमा पार करने वाली थी।”
“हम तुम पर भरोसा क्यूँ करें ये बताओ..... तुम भी तो विक्रांत जैसे हो.. अपरचित?”
प्रवीण ने शौर्य को वो वहसी दरिंदा समझ कर उसकी असलियत सबके सामने लाने पर उतारू था।
“भरोसा तो करना ही पड़ेगा.... अगर अपनी जान प्यारी है तो..... इसके अलावा कोई और विकल्प नहीं है तुम सबके पास.... ।”
“तो हमें क्या करना चाहिए शौर्य!” - प्रोफेसर ने पूछा।
“सबसे पहले तुम सबको मेरी बतायी हुई जगह पर जाना है, वहां जा कर हम प्लान बनाएंगे। कि आगे क्या करना है। वहाँ तुम जैसे कई लोग हैं, वैसे भी आज चौदस की रात है विक्रांत कभी भी यहाँ आ सकता है। चलो चलें....... ।”
“ठीक है चलो.....!”
सभी जाने लगे कि तभी नेहा अपना सिर पकड़ कर अपने घुटनों के बल बैठ गई, अपने पलकों से अपनी आंखों को भींच लिया। नेहा को असहनीय जलन और दर्द महसूस हुआ। जैसे उसका सिर फटने वाला है।
प्रवीण ने नेहा को अपनी गोद में लिटा लिया। उसका शरीर आग की भट्टी की तरह तप तथा बुरी तरह से कांप रहा था।
“शौर्य देखो.... नेहा को क्या हुआ है? हम सबकी सहायता करो।” - प्रोफेसर ने शौर्य से कहा।
“डेडी.... देखो। ये मर रही है। शौर्य कुछ करते क्यूँ नहीं हो?”
तभी नेहा झटके के साथ प्रवीण की गोदी से उठ कर बैठ गई। उसे खून की उल्टी होने लगी।
खून की उल्टी होते देख सभी लोग डर गए।
“शौर्य! इसे क्या हो रहा है प्लीज कुछ करो न।” - प्रवीण ने शौर्य से रिक्वेस्ट की।
“नेहा को कुछ नहीं हुआ.... ये सब शाप का दुष्प्रभाव है, नेहा का शरीर शाप की वजह से अंदर ही अंदर सड़ रहा है। हमें जल्द ही शाप का तोड़ ढूँढना होगा, नहीं तो जो लोग शापित हैं उन्हें विक्रांत मार डालेगा या फिर वो खुद अपनी मौत मर जाएँगे।”
“तो अब क्या करें?”
“मेरे साथ चलो... जल्दी ।”
“लेकिन नेहा.....?”
“वो ठीक है.... वो हमारे साथ चलेंगी!”
सभी ने देखा नेहा अब सामान्य हो चुकी थी, असल में उसे शाप के कारण दौरे पड़ रहे थे।
“नेहा! आर यू ओके?” - प्रोफ़ेसर ने पूछा।
“यस सर.... ।”
नेहा खड़े हो कर प्रवीण और प्रोफेसर के चलने के लिए तैयार हो गई।
शौर्य, तीनों लोगों अपने साथ लेकर दूसरे रास्ते से होते हुए जंगल में पहुंच गया। चारों तरफ़ पसरा रात का स्याह अंधेरा और भेड़ियों की डरावनी आवाजें सदियों पहले विक्रांत के द्वारा लाई गई तबाही का जीता जागता उदाहरण थीं।
रात के अंधेरे और साथ में घने कोहरे के कारण आसपास की चीजों और खतरे को देखना असंभव था। सभी लोग शौर्य के पीछे - पीछे चल रहे थे।
कुछ दूर चलने के बाद शौर्य रुक गया और सभी को चुप रहते हुए झाड़ियों में छुपने का इशारा किया।
सभी लोगों ने देखा कि सामने सैकड़ों की तादाद में मानव भेड़िये घूम रहे थे। जो इंसानों की गंध लेकर उन लोगों की ओर बढ़ रहे थे।
सभी बहुत डरे और सहमे हुए झाडियों में साँसे थामकर छिपे हुए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वो अब क्या करें या फिर उन सबको बचाने के लिए शौर्य क्या करेगा?
जैसे ही सभी भेड़िये शौर्य के पास आए तो शौर्य की आंखों की रंगत बदल गई और शौर्य लंबी लंबी साँसे लेने लगा।
जिससे आसपास के वातावरण की गंध और तापमान में बदलाव आने लगा। जिस इंसानी गंध से आकर्षित हो कर मानव भेड़िए उनकी ओर आ रहे थे, उस गंध में बदलाव की वजह से वो मानव भेड़िये भ्रमित हो गए और वहां से चले गए।
शौर्य में हुए इस बदलाव को सभी ने देखा था।
नेहा, झाड़ियों में से निकल कर शौर्य से इसके बारे में पूछती है।
“शौर्य ये कैसे किया और ये तुम्हारी आँखों का रंग पीला क्यूँ पड़ गया था? क्या तुम भी विक्रांत जैसे हो?”
“नहीं.... मैं विक्रांत जैसा नहीं हूँ, मेरी आँखों का पीला रंग यहाँ के वातावरण में खुद को ढालने या यूँ कहें कि अनुकूलित करने की वजह से बदलता रहता है। चलो अब बहुत हो गये सवाल और जबाब... अब हमें बिना देरी के.. यहाँ से निकलना चाहिए..।”
इतना कहता हुआ, शौर्य आगे बढ़ गया और सभी उसके पीछे हो लिए......
नेहा हैरान खड़ी सबका मुँह ताक रही थी, क्योंकि वहाँ उसके सवाल का कोई भी ठीक से जवाब ही नहीं दे रहा था। सब टेढ़े और अबूझ पहेली की तरह जबाब मिल रहे थे उसे, जैसे वो कोई प्रोफेसर न हो कर कोई छोटी बच्ची हो।
तभी प्रवीण नेहा को घूरते हुए उसके नजदीक से निकला।
“तुम आजकल लोगों के साथ कुछ ज्यादा ही फ्रेंक होने लगी हो न, ये उसी का नतीजा है।” - प्रवीण, नेहा के कान में फुसफुसाते हुए बोला।
मानो जैसे वो नेहा के चेहरे और उसके हाव भाव को पढ़ रहा हो।
जिससे नेहा को और अजीब महसूस हुआ।
वह पलटी और आगे चल रहे प्रवीण से भोंहें चढ़ाते हुए बोली - “वैसे तेरा भी विहेव भी मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, क्या तुझे भी किसी भेड़िये ने काटा है?”
“ओ... नहीं स्वीटी....!” - प्रवीण ने नेहा की ओर मुस्कुराते हुए कहा।
“चल निकल... अब तू, मुझे पता है कि तूने फ्रेंक होने वाली बात मुझसे क्यूँ बोली....?”
“ओ.. सच में, बच्ची समझदार हो गई है तो.... ।”
“मैं बच्ची नहीं हूँ गधे...... ।”
“दोनों अब बस भी करो.... बच्चों की तरह लड़ना बंद करो.. तुम दोनों अब प्रोफेसर हो... ये समझ लेना चाहिए तुम दोनों को... ।” - प्रोफेसर ने दोनों को शांत कराया।
“सुना न आपने नेहा जी! अब आप बच्ची नहीं, प्रोफ़ेसर बन चुकी हो..... ।” - प्रवीण हँसता हुआ आगे चला गया।
नेहा, उसे अभी तक घूर रही थी।
शौर्य, नेहा, प्रवीण और प्रोफ़ेसर चारों लोग एक ऊँची जगह पर पहुंच गए। जहां शीत लहर का बहाव ज्यादा था।
सबके कपड़ों और चेहरों पर कोहरे की बूँदे बर्फ़ के रूप में जम चुकीं थीं। शौर्य शांत एक चित्त हो कर कोहरे और अंधेरे में अदृश्य एक दिशा में देख रहा था।
शौर्य के रुक जाने की वजह से प्रवीण, नेहा और प्रोफेसर भी उसके पास पहुंच गए और उसी दिशा में देखने लगे जिस दिशा में शौर्य देख रहा था।
सभी ने देखा कि उस दिशा में दूर कहीं हल्की सी पीली रोशनी दिख रही थी।
“शौर्य! मैंने भी ऎसी ही रोशनी विक्रांत के बंगले की छत से देखी थी। क्या यह वही रोशनी है?” - नेहा ने याद करते हुए कहा।
“नहीं.... ये वो रोशनी नहीं है। ये रोशनी मेरे क्षेत्र की है, जहाँ हम सब जाने वाले हैं।”
“तो फिर वो रोशनी किसकी और कैसे वहाँ आई थी, जो मुझे दिखी थी?” - नेहा ने उत्सुकता दिखाई।
“ओह..... ये तो अभी बहुत दूर है, मुझे ये समझ में नहीं आ रहा, जब हमें वहां जाना ही है, तो हम यहाँ क्या कर रहे हैं, विक्रांत का इंतज़ार.....?” - प्रवीण ने चिंतित होते हुए कहा।
“विक्रांत का इंतज़ार क्या करना वो, हर जगह है।”
“नेहा....! जो रोशनी आपने देखी वो कोई मानव भेड़िये का कोई जाल होगा बस.... यहाँ आपको कई अजूबे देखने को मिल जाएंगे। इसलिए आप भ्रमित न हों ये आप सबके लिए अच्छा रहेगा.... ।”
“......और हाँ, प्रवीण! मैं यहां से रास्ते के अंधेरे वाले हिस्से में छिपे विक्रांत और उसके साथियों पर नजर रखे हुए हूँ, क्योंकि विक्रांत को खंडहर तक जाने वाले हर रास्ते का पता है और वो अपना समय जाया न करते हुए वहीं हम लोगों की ताक में है।”
“इसका मतलब, हमें रात यहीं गुजारनी पड़ेगी? कितनी सर्दी है यहाँ यार.....?” - प्रवीण ने सिकुड़ते हुए कहा।
“आज रात हम सब, ठंड से मरेंगे या फिर कोई भेड़िया हमें अपना डिनर बनायेगा, पक्का...”
सर्दी की वजह से प्रवीण ठिठुरा हुआ बैठा था।
उसी वक़्त पास की झाड़ियों में तेज हलचल हुई।
“ओह माइ गॉड..... ये क्या था?” - प्रवीण ने चौंकते हुए कहा।
“वो हमारी तरफ़ आ रहें हैं, जल्दी मेरे पीछे आओ.....!” - शौर्य ने घाटी से एक खुफ़िया रास्ते की ओर भागते हुए कहा।
“ये ऎसे भाग रहा है, मुझे नहीं लगता ये हमारी जान बचा पायेगा..... विक्रांत, मोहिनीगढ़ का बादशाह है... ।” - प्रवीण ने नेहा और प्रोफेसर की ओर देखते हुए कहा।
“अब चल आगे रास्ता खराब है, गिर मत जाना...।” - नेहा ने प्रवीण को घूरते हुए कहा।
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