होली की धूमिल स्मृतियाँ

 💔होली की धूमिल स्मृतियाँ 💔



By~🥀 sonu Samadhiya Rasik 🇮🇳 🚩 


आज गाँव में काफ़ी चहल पहल थी। गाँव का हर मोहल्ला और कालोनी हर्षोल्लास से झूम रहे थे। क्योंकि आज ऎसा ही त्यौहार था होली का।

हिंदू - मुस्लिम सब आपसी वैमनस्य का भाव भुला कर परस्पर गुलाल और अमीर लगाकर होली के त्योहार को मना रहे थे।


गली - मोहल्लों में भी आज अमीर - गुलाल के बादल उमड़ रहे थे।

बच्चों और किशोरों की टोलियाँ हर गली - मोहल्ले में जाकर सभी को रंगों से भरी पिचकारियों से भिगो रहे थे।

साथ ही बच्चे और किशोर अपने से बडे़ बुजुर्गों को गुलाल का टीका लगा कर उनसे स्नेहपूर्ण आशीष ले रहे थे।

बच्चों और किशोरों की टोलियाँ जिधर से गुजरतीं। उसी गली को अपने प्रेम की सुगंध और रंग रंगीन कर जाती।

चारों तरफ़ बस हँसी, ठिठोलियां और बच्चों के मनमोहक कलरव से वातावरण गुन्जित कर रहे थे। रंगों से भीगे हुए बदन और रंगों के पीछे छिपे हुए चेहरे की सच्ची मुस्कुराहट होली की हृदयरसज्ञता और सार्थकता को प्रदर्शित कर रही थी।

चारों ओर फैले विभिन्न प्रकार के सुगंधित रंग इस प्रकार प्रतीत हो रहे थे। मानो प्रकृति ने अपने चहेते रंगों और अपने प्रेम को होली के सुअवसर पर इंसानों को अपना प्यार भरा पैगाम भेजा हो।


उसी गाँव का एक किशोर बिनोद अन्य किशोरों की भांति अपनी टोली के साथ एक गली में उत्साह के साथ होली खेलने में मग्न था।

विगत वर्ष की भांति विनोद इस वर्ष भी सबसे ज्यादा व्यक्तियों को रंगों से भिगोने का रिकॉर्ड अपने नाम कर चुका था।

विनोद का हंसमुख और नटखट स्वभाव ही उसे सबसे अलग व सबका चहेता बनाता था।

होली खेलते हुए विनोद का ध्यान गनेश बाबू के घर पर गया।

घर का द्वार हमेशा की तरह सुना पड़ा था। विनोद को अच्छी तरह से पता था। कि गनेश बाबू घर पर ही होंगे।

क्योंकि वो होली के दिन घर से बाहर नहीं निकलते और न ही होली खेलते।

होली न खेलने का कारण गनेश बाबू ने अपने साथ घटित एक अप्रत्याशित घटना को बताते हैं।

विनोद का गनेश बाबू के घर आना जाना लगा रहता था। इसलिए वह गनेश बाबू का सबसे अच्छा पड़ोसी और छात्र था। वह गनेश बाबू से अच्छी तरह से घुलमिल गया था।


सत्तर वर्षीय गनेश बाबू एक सेवानिवृत्त शासकीय प्रोफेसर थे। अब वह अपना जीवन निर्वाह, पेंशनभोगी के रूप में कर रहे थे।

उम्र के इस पड़ाव पर गनेश बाबू अपनी चार मंजिला कोठी में अकेले रहते हैं।

उनका लोगों के साथ उठना - बैठना न मात्र का था। वह ज्यादातर अपना खाली समय मोहल्ले के गरीब बच्चों को निशुल्क ट्यूशन देकर बिताते थे।

मोहल्ले के सभी लोग उन्हें प्यार से बाबू जी के नाम से संबोधित करते थे।


गनेश बाबू कहते हैं कि - "जीवन में संतोष का होना बहुत आवश्यक होता है। क्योंकि असंतोष तृष्णा को जन्म देता है और तृष्णा दुख को। जिससे खुशहाल जीवन नर्क बन जाता है।"


विनोद, गनेश बाबू के घर के अंदर मैन हॉल में पहुंच कर उसने चारों तरफ़ अपनी निगाहें दौड़ाई। 

विनोद पूरी तरह रंग से सराबोर था। उसे पहचानना कठिन था। 


" बाबू जी........ ।"-विनोद ने गनेश बाबू को खोजते हुए आवाज लगाई। 

कोई उत्तर न मिलने पर विनोद बिना रुके सीढ़ियों से होता हुआ। कोठी की सबसे ऊपर वाली छत पर पहुंच गया। 

उसने देखा कि गनेश बाबू छत की मूढेर के पास कुर्सी पर बैठ कर गली में हो रहे होली के उत्सव को देख रहे हैं। 

उन्होंने आज दूध के समान चमचमाती सफेदी वाली कुर्ता - पजामा पहना हुआ है। दरअसल गनेश बाबू उम्र के इस पायदान पर भी सफेदी और सफाई के बड़े शौकीन थे। 

आंखों में पहने नजर का चश्मा और सिर के बालों को सफेदी उनके जीवन के वृद्धावस्था की ओर हो रहे अग्रसर की परिचायक थी। 


विनोद ने गनेश बाबू के पास जाकर कहा - "बाबू जी। जय श्री राम।" 


गनेश बाबू ने असहज होकर मुड़ते हुए कहा - "कौन? बिन्नू ।जय श्री राम.. । आओ मेरे पास बैठो!" - गनेश बाबू ने वहां विनोद को देख कर प्रकृतिस्थ होते हुए कहा। 

गनेश बाबू विनोद को प्यार से बिन्नू बुलाते थे। 


विनोद, गनेश बाबू को गुलाल का टीका(तिलक) लगा कर उनके पैरों की और लपका तो गनेश बाबू ने उसे उठाकर अपने गले लगा लिया। विनोद ने महसूस किया। कि गनेश बाबू का बदन ज्वर के समान तप रहा था। 


" बाबू जी आपको बुखार है क्या? आपने उपचार लिया या नहीं।" - विनोद ने चिंतित होकर पूछा। 



"विन्नू, मैं ठीक हूँ। आओ बैठो।" - गनेश बाबू ने एक कुर्सी विनोद की ओर खिसकाते हुए बोले। 




विनोद और गनेश बाबू छत से सुदूर क्षेत्र में फैली हरियाली को कुछ क्षणों तक निहारने के बाद विनोद ने गनेश बाबू के चेहरे की ओर देखा। 

उसे उनके चेहरे पर मोह से परे एक विरक्ति भरे भाव का अवलोकन हुआ। आज वो उदास थे। खिन्नता उनके रोम - रोम से स्फुटित हो रही थी। 


"बाबू जी एक बात पूछूँ?" - विनोद ने झिझकते हुए पूछा - "अगर आपकी इच्छा हो तो।" 



"हाँ! पूछो क्या पूछना है तुमको?" 


"बाबू जी आप होली क्यूँ नहीं मनाते? आज तो आपको बताना ही होगा। हर साल आप यही बोलते हैं। कि मैं बड़ा हो जाऊंगा तब बताओगे। अब मैं इक्कीस वर्ष का हो गया हूँ।"-विनोद ने ज़िद की। 



"अरे भई! तुम तो सच में बड़े हो गए हो। अब तो तुमको बताना ही पड़ेगा।"-गनेश बाबू ने सालों से चेहरे पर घर किए अवसाद से निकल कर मुस्कुराने की एक नयी कोशिश की। लेकिन वो हमेशा की तरह इस बार भी असफल रहे। 


झुर्रियों के रूप में वर्षों से पनप रहे, दुख ने उन्हें अंदर से तोड़ने के साथ असमय ही बूढ़ा कर दिया था। 

ईश्वर की लीला ही निराली है। जिसकी अंतरात्मा शरीर को त्यागने को हमेशा तत्पर थी। लेकिन वह शख्स अभी तक मौत की जिंदगी जी रहा था। 

ये शरीर की तपन कोई साधारण तपन नहीं थी। ये किसी के विरह की नर्काग्नि थी। जो गनेश बाबू को अंदर से पिघला कर उन्हें समय के बहते दरिया के साथ बहा देना चाहती थी। 


"बिन्नू, सुनो इस बात को बीते हुए पचास वर्ष हो गए हैं। लेकिन मुझे ऎसा लगता है कि जैसे ये कल ही की बात हो।" - गनेश बाबू ने अपने दोनों हाथों को पीछे बांध लिए और टहलने हुए दूर क्षितिज को निहारते हुए बोलने लगे। जैसे वो शून्य में किसी की मौजूदगी को अपने इंतज़ार की वजह देना चाहते हों। 

विनोद गनेश बाबू की बातों को गौर से सुन रहा था। 

 गनेश बाबू ने आगे कहना जारी रखा - "तब मैं तुम्हारी ही उम्र का था। मैं अपनी बड़ी बहन के यहाँ इंटर की परीक्षा देने के लिए गया था। एक शाम मैं घर की छत पर अपने अध्ययन में व्यस्त था। कि तभी मेरे कानों में एक बहुत ही सुरीली आवाज कानों में पड़ी। मैंने देखा कि मेरे बगल वाली छत पर एक लड़की खड़ी थी। वो सूखे कपड़े उठाने के लिए आई थी। जब उसकी नजर मुझ पर पड़ी। तो कुछ क्षण तक वो मुझे टकटकी लगाकर देखती रही। उसका नाम प्रभा था। प्रभा जैन। दुबली - पतली सी गोरे रंग की। खूबसूरती की मिशाल। मैं बरबस उसकी तरफ खींचा चला गया और मैं न चाहते हुए भी अपनी नजर उससे हटा न सका। इस आकर्षण का कारण मेरी किशोरावस्था को समझ सकते हैं। क्योंकि किशोरावस्था में आकर्षण होना साधारण बात है। 

अंत में प्रभा ने ही मुस्कुराते हुए मुझ से नजर हटा ली। शायद वो मेरी बेवकूफी पर हंस रही थी। क्योंकि मैं जो पागलों की तरह उसे देखे जा रहा था। हालांकि बाद में, मैं इस बात पर शर्मिंदा हुआ। पता नहीं ये लड़की मुझे कैसा लड़का समझ बैठी होगी। 

मैंने अपनी किताब में ध्यान लगाने का अर्थहीन प्रयास किया। लेकिन मन ठहरा चंचल। वो बार- बार उस लड़की की ओर भटक कर पहुंच जाता। अन्ततः मैंने दोबारा उसकी तरफ देखा। तो वो नीचे जाने के उद्देश्य से सीड़ियों के पास खड़ी, इस इंतजार में थी। कि मैं कब उसे देखूं! वही हुआ। जैसे मैंने उसे देखा। तो वो बड़े गौर से मुझे ही देख रही थी। मैं फिर से झेंप सा गया और हङबङा कर अपनी किताब में देखने लगा। 

उस दिन मुझे रात को नींद नहीं आई। उसकी खूबसूरती और उसकी नजर मेरे दिल में घर कई थी। 


हर शाम उसका किसी न किसी बहाने ऊपर आना, मुझे देख कर मुस्कुराना। ये सिलसिला दो - तीन दिन तक यूहीं चलता रहा। सच कहूं तो मैं अब शाम को छत पर पढ़ने के बहाने उसे ही देखने जाता था। 

मुझे उसकी सूरत और मुस्कान से एक तरह का लगाव होने लगा था। मुझे कहीं न कहीं ऎसा महसूस हुआ। कि वो लड़की मुझे पसंद करने लगी थी। 

रोजाना कि तरह आज भी प्रभा फुदकती हुई। छत पर आई और ऊपर आते ही उसने मेरी ओर देखा। थोड़ा सा मुस्कुराने के बाद वह मुड़कर छत की दूसरी ओर बनी दीवार के पास पहुंच गई। उसकी मुस्कान देख कर जैसे मैं खुद को ही भुला बैठा था। जब वो मुस्कुराती थी, ऎसा लगता था। कि जैसे गुलाब के पौधे से गुलाब झड़ रहें हों। 

मैंने अभी तक अपनी किताब नहीं खोली थी। बस बंद किए उसे ही देख रहा था। 

तभी वो अचानक मुड़ी और मुझे घूरते हुए मेरी छत की ओर बनी दीवार की ओर बढ़ी। मेरी धड़कने तेज हो गई। मैं एक अंजाने भय की आशंका से भयभीत होकर जल्दी से अपनी किताब खोल कर बङबङाने लगा। ताकि उसे संदेह न हो कि मेरा ध्यान उस पर नहीं बल्कि किताब पर है। 


कुछ देर बाद मैंने उसकी ओर देखा। तो वो मेरी दीदी, जो अपने आँगन में कुछ काम कर रही थी। उनसे बातें कर रही थी और साथ ही वो कभी-कभी मेरी ओर भी देख लेती। 

दरअसल उसकी छत की लंबाई मेरी दीदी के घर जितनी थी। जिसमें दीदी के घर की छत और आँगन आ जाते थे। 


आज, मैं जानबूझकर उसकी छत की ओर बनी दीवार के नजदीक बैठा था। मैं उससे बात करना चाहता था। लेकिन मुझे डर था। कि अगर कहीं दीदी को पता चल गया। तो, बहुत डांट पड़ेगी और वो मुझे घर वापस भेज देंगीं। 


कुछ देर तक वो मेरी दीदी से बात करती रही। वो मेरी दीदी को भाभी बुलाती थी। क्योंकि पड़ोसी होने की वजह से उसके घर के और दीदी के घर वालों से परस्पर अच्छे संबंध थे। 


मैं अपना ध्यान अपनी किताबों में लगाने का निर्थक प्रयास कर रहा था। कि तभी प्रभा की सुरीली आवाज ने मेरे कानों से होते हुए दिल तक करंट दौड़ा दिया। 

मुझे ऎसा लगा। जैसे मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ। 


मैंने तुरंत अपनी नजर उठाकर देखा। तो पाया कि प्रभा और मेरे बीच में सिर्फ़ एक दीवार का फासला था।


"आप मालती भाभी के भैया हो?" प्रभा ने मुझ पर अपनी नजरें गढाते हुए बोली। 



"जज्जी..... ।" - मैं झिझकते हुए बोला। 


मेरा जबाब सुनकर वो खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली "आप तो लड़कियों से भी ज्यादा शर्माते हो।" 


"ऎसा नहीं है। आप मुझे तुम या फिर गनेश बुला सकती हो।" 


" ठीक है गनेश बाबू जी। तुम इन्तेहान देने के लिए आए हो?" 



"जी हाँ।" 

मैं उसकी बातों का जबाब ठीक से नहीं दे पा रहा था। लेकिन वह बिल्कुल सामान्य खुली सी मुझसे बात कर रही थी। मैं तो बस उसे ही निहारते हुए जा रहा था। लेकिन बात करने के दौरान उसने मुझे एक भी बार नहीं देखा। 

हम दोनों ने देर तक बातें की। परंतु किसी ने भी एक दूसरे की बात नहीं की। 


इस तरह हम दोनों एक दूसरे के साथ बिना कहे घण्टों तक समय गुजारने लगे। वह मेरी दीदी के घर भी आती जाती रहती थी। तब भी हम एक दूसरे के लिए समय निकाल लेते थे। तो कभी शाम को छत पर एक दूसरे से घंटों बातें करने लगे। 

इन मुलाकातों में हम दोनों एक दूसरे के कब इतने करीब आ गए। कि हमें पता भी नहीं चला। 

अब हम दोनों की स्थिति इस मुकाम पर पहुँच चुकी थी। कि हम एक दूसरे से जब भी दूर होते तो वो पल बैचेनी से कटते।

हम दोनों एक दूसरे को बेहद पसंद करने लगे थे। ये बात हम दोनों जानते हुए भी एक दूसरे से कहे बिना मिलते रहे। 


अब आया वो दिन जो मेरे जीवन का सबसे खास होने के बावजूद भी मैं उस दिन को याद करते हुए मेरा जर्रा - जर्रा सिसक उठता है। बिन्नू....... ।"

इतना कहते ही गनेश बाबू की पथराई आंखों से आंसू मोतियों की तरह लुढ़क आये। 

गनेश बाबू ने अपना चश्मा निकाला और अपनी आंखों को अपनी अंगुलियों से दबा दिया। 


यह सब देख कर विनोद खड़ा हो गया और गनेश बाबू के पास आया। तो गनेश बाबू ने उसे हाथ के इशारे से रोक कर बैठने को बोला। 


" बाबू जी आप ठीक तो हैं? मुझे माफ कर दीजिए बाबू जी। मुझे ये सब पूछकर आपको दुखी नहीं करना चाहिए था।" 

विनोद को दुख होने के साथ पछतावा भी हो रहा था। 



"अरे! ऎसा नहीं विन्नू। ये आँसू ही तो मुझे अब तक जिंदा रखे हुए हैं। यादों की नर्काग्नि से। इन आंसुओं को शीतलता ही मेरे अंदर धधक रही आग की तपन से राहत देती हैं। अब इन्हीं के सहारे दिन गुजरते हैं। दुनिया तो अर्थी को सहारा देने आती है, वो भी इसलिए जिंदगी भर जो सितम किएं हैं। उनपर आडंबरों का पर्दा डालने के लिए।"-गनेश बाबू ने हँसने की कोशिश करते हुए कहा। लेकिन उनकी हँसी साँस के साथ गले में अटक कर रह गई थी। 


फिर वो आगे बोले-" यही दिन था। मैं एक कमरे में अपनी किताब से कुछ शब्दों को अपने मस्तिष्क में उतारने की जद्दोजहद कर रहा था। क्योंकि दो दिन बाद मेरा इन्तेहान था। लेकिन मेरा मन और मस्तिष्क प्रभा के सिवाय और कुछ भी स्वीकार करने को तैयार नहीं था। मेरा मन और दिमाग मेरे दिल के वश में थे। जो सिर्फ़ प्रभा के नाम से धड़क रहा था। 

आख़िरकार दिल से हारकर मैंने अपने सीने पर अपनी किताब को उलट लिया और अपने दोनों हाथों को अपने सिर के नीचे रखकर छत को निहारने लगा। 

और प्रभा को सोचते - सोचते मेरी आँखों के सामने प्रेम के सागर की लहरों का उद्गम हो गया और मैं उसमें डुबकी लगाने लगा। अतीत के सुखद पल जिन्हे हम वर्तमान में जीते हैं और जो भविष्य का आधार स्तंभ होते हैं। उन पलों के मार्मिक स्पर्श से कितना सुकून मिलता है? 

लेकिन मैं ये भूल चुका था। कि सुख और दुख का जोड़ा होता है। जब हमें अतीत के सुखद पल वर्तमान या फिर भविष्य में सुकून दे सकतें हैं तो बीते हुए दुख भरे एहसास आपके दिल के जख्मों को हरा कर सकते हैं। कुछ घाव तो ऎसे होते हैं। जिन्हे भरने वाला शायद भविष्य में आपके साथ हो? 

मैं प्रेम रूपी बगीचे में भौंरे की भाँति फूलों की सुगंध से मोहित हुआ रसास्वादन करने को तत्पर मुग्ध होकर विचरण कर ही रहा था कि तभी घर में किसी के आगमन की आहट ने मेरे सुंदर स्वप्न को खंडित करके मुझे वर्तमान की वास्तविकता से से पुनः परिचित कराया। 

मैं उठ कर बैठ गया। मुझे कुछ लोगों की चहलकदमी सुनाई दे रही थी। मुझे लगा कि होली के अवसर पर जीजा जी के कोई मित्र या रिश्तेदार मिलने आये होंगे। 

तभी मुझे उन्ही में एक बहुत ही प्यारी और परिचित सुरीली आवाज़ भी सुनाई दी। जिससे मेरा रोम - रोम प्रफुल्लित हो उठा। वह आवाज प्रभा की थी। 

मैंने जैसे ही खड़े होकर बाहर जाकर देखने का विचार किया। कि कमरे के द्वार से प्रभा के घर वाले गुजरे। प्रभा उन सबके बीच में थी। उसकी निगाहें मुझे ही ढूंढ रही थी। 

उसने मुझे देखा तो उसका चेहरा फूल की तरह खिल उठा। वह अपनी आँखों से इशारा करके घर के अंदर चली गई। 


मैंने अंदर जाकर देखा कि प्रभा के पिता और माता जी मैन हॉल में सोफ़े पर बैठ कर दीदी के ससुर और सास से बातें कर रहे थे। मैंने उनका अभिवादन किया। लेकिन प्रभा वहां पर नहीं थी। 

तभी रसोईघर से दीदी ने मुझे आवाज लगाई। 


"गनेश! जरा इधर आओ। मेहमानों को खाना खिला दो।" 



"जी! अभी आया दीदी।" 

मैं जैसे ही रसोईघर में गया। प्रभा काम में दीदी का हाथ बंटा रही थी। वह मुझे देख कर मुस्कुराने लगी। 


"गनेश जाओ प्रभा के साथ सभी को खाना खिला दो।" 


"जी.... ।" 



प्रभा ने खाना लगी थालियाँ उठाई और मेरी ओर बढ़ाती हुई बोली-" चलिए गनेश बाबू.... ।"

इतना कहकर वह फिर से मुस्कराई। उसके बार - बार मुस्कुराने की आदत मुझे बहुत पसंद है। 

इसी बीच मैंने दीदी की ओर देखा तो वह भी प्रभा की बातों को सुनकर मुस्कुरा रही थी। 

मैं तो बस प्रभा को ही निहारे जा रहा था। आज वह सफ़ेद कमीज और सलवार में किसी अप्सरा उर्वशी से कम नहीं लग रही थी। उसने अपना कत्थई रंग का दुपट्टे के दोनों छोर अपने दांये कंधे से होते हुए अपने बायीं ओर कमर पर बांध रखे थे। जिससे काम के दौरान दुपट्टा कोई दखल न दे। उसके हाव भाव से वह दीदी के साथ काम में हाथ बटाने के लिए उत्सुकता दिखा रही थी। 

सबको खाना खिलाने के बाद मैं बाहर वाले कमरे में गया। कुछ क्षण के लिए आराम करने के उद्देश्य से मैंने बेड की ओर देखा तो सामने मेरी किताबें बिखरी पड़ी थी। 

मैंने उन्हें अपने आराम में अवरोध समझ कर उन्हें अलमारी में पटक दिया और खुद बेड पर गिर कर एक लंबी राहत भरी साँस ली। 

मैंने अपनी आँखे बंद ही की थी कि तभी मुझे कमरे में किसी के आने की आहट सुनाई दी। तो मैं तुरंत बेड पर बैठ गया। मैंने देखा कि प्रभा अपने हाथ में थाली लिए कमरे के अंदर आई और उसने मेरी ओर देखे बिना ही थाली को मेज पर रखते हुए कहा - "आप भी खाना खा लीजिए।" 


"जी, धन्यवाद। आपने भी तो अभी खाना नहीं खाया आप भी खा लीजिए। मुझसे ज्यादा तो आपने काम किया है।" 



मेरी इस बात को सुनकर वह खिलखिलाकर हँस पड़ी और बोली - "इसे भी काम कहते हैं आप मैं अपने घर रोजाना करती हूँ। घर का काम कोई काम नहीं होता गनेश बाबू।"


इतना कहते हुए वो कमरे से बाहर चली गई। 

मेरा मन और हृदय प्रसन्नता के परों से उड़ान भरने लगा। जो मेरे होंठों पर मुस्कान की लालिमा बिखेर गया। 


मैंने खाना खाने के लिए निवाला अपने मुँह की ओर बढ़ाया ही था। कि प्रभा दूसरी थाली लेकर कमरे आ गई। 


" अकेले - अकेले बड़ी जल्दी है।" - उसने अपनी थाली को मेरी थाली के पास रखते हुए बोली। 


"नहीं ऎसी कोई बात नहीं है। मैंने आप से पहले ही बोला था। वैसे आप पर सफेद रंग जंचता है।" 


"अच्छा जी शुक्रिया। वैसे मैं होली के दिन सफेद रंग के कपड़े पहनती हूँ।" 

वह मेरे सामने मेज के पास कुर्सी सरका कर खाना खाने लगी। 


हम दोनों ने ढेर सारी बातें की और खाना खाया। 

जब हम किसी को अपने दिल से चाहने लगते हैं और उस शख्स से बातें करने के अवसर की तलाश रहतें तब हमें अवसर नहीं मिल पाता क्यों कि तब चाहत एक तरफा होती है। जो अवसर की कमी की स्थिति को उत्पन्न करती है। 

लेकिन जब इस का बिल्कुल विपरीत हो तब हम बिना अवसर के एक दूसरे करीब होते हैं जो प्रेम के परस्पर आकर्षण का परिणाम होती है। 

और हम बिना रुके घंटों तक बातें करते हैं परंतु फिर भी अपना मन नहीं भरता। 


मेरे एहसास रूपी बगीचा खूब फलित हो रहा था। क्योंकि प्रभा के प्रेम रूपी बरसात जो हो रही थी। 


और फिर शाम हुई। बस यही एक शाम थी जिसने मेरे जीवन को रंगीन और सुहाना बना दिया था। शायद इसी शाम की उन खूबसूरत यादें ही आज तक मेरे दिल की धड़कन बनकर धड़क रही हैं। जिनकी रहमो करम पर मेरा जीवन है। 


शाम को सब होली खेल रहे थे। मैंने दीदी के ससुर के गुलाल का तिलक लगाया और जैसे ही मैं उनके पैर छूकर मुड़ा तो अचानक प्रभा ने ढेर सारा गुलाल मेरे चेहरे पर मल दिया और जब तक मैं कुछ करता तब तक वह हिरनी जैसी कुलाचे भरते हुए दूर खड़ी हो कर हँसने लगी। 


अभी तक किसी ने उसे रंग नहीं लगाया था। मैंने भी अपने मन में उसे रंगने की ठान ली। 

मैंने आंगन में मेज के ऊपर रखे हरे और गुलाबी रंग के गुलाल को अपनी मुट्ठी में भरा और प्रभा की ओर लपका। वह मेरे विचारों को भांप कर भागती हुई मेरी दीदी के पीछे छिपने लगी। मेरे पास पहुंचते ही दीदी ने उसे पकड़ कर आगे कर लिया। तब उसने फुर्ती से खुद को दीदी से छुट कर वहां से भाग गई। 

वह हंस हंस कर पागल हुई जा रही थी। तभी वह घर के आंगन के पास कमरे में जाकर छिप गई। 

वह जानती थी। कि मैंने उसे कमरे जाते हुए देख लिया था। लेकिन हक़ीक़त में वह मुझे सबकी नजरों से दूर ले जाना चाहती थी। 

मैं भी उसे ढूंढने के लिए कमरे में गया तो वह मेरे सामने खड़ी थी। मैंने उसे पकड़ने की बहुत कोशिश की मगर वो मुझे हर बार पहुंच से दूर भाग जाती। कुछ क्षण के बाद वह कमरे के कोने में पहुंच गई वहां मेरी पहुंच से भागना लगभग असंभव था। 

वह अभी तक खिलखिलाकर हंसे जा रही थी। वह कोने में खड़ी मुझे एक टक देखने लगी। कुछ देर पहले उसके जो हाथ रंग लगाने का विरोध कर रहे थे। उनमें हलचल होना बंद हो गई थी। अब मेरी निगाहें उसकी निगाहों से जा मिली थीं। उसका शरीर निढाल सा हो गया जैसे मोम किसी के आगोश में आने के लिए पिघल कर बहना चाह रहा हो। 

मेरे आहिस्ता आहिस्ता उसकी ओर बढ़ते कदमों से उसके दिल की धड़कन तेज़ हो रही थी। हम दोनों एक दूसरे को बिना पलक झपकाए देखे जा रहे थे। 

मैं पहली बार प्रभा के इतने पास पहुँचा था। मैं उसके शरीर की गर्मी और उसकी साँसों की आहट को स्पष्ट रूप से महसूस कर रहा था। उसकी बड़ी - बड़ी आँखें और उसके बदन से उठती मंद - मंद गुलाल की महक मेरे जीवन को आज तक महका रहीं हैं। 

वह मुझे अपनी बाहों में समेटने को उतावाली हो रही थी। ये उसकी अस्थिर आँखों की पुतलियों से जाहिर हो रहा था। 


मेरी रग - रग में प्रभा के प्रेम का संगीत बह रहा था। हृदय की उमंग का अवर्णनीय रंग था। 

मैंने अपने हाथों को कुछ हद तक शिथिल छोड़ते हुए उससे पूछा - "अब तुम्हें मुझसे कोई नहीं बचा सकता।" 


मैंने बात पूरी भी नहीं कर पाई कि तभी प्रभा तपाक से बोली - "बचना भी कौन चाहता है? गनेश बाबू।" 

उस वक़्त मैंने उसकी बातों में प्रेम की एक अलग ही अभिव्यक्ति देखी। उसकी बातों में एक अलग ही कशिश थी। जो मेरे शरीर में एक तरंग की भांति स्फुटित हुई। 


आगे क्या बोलू मैं? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मेरे दिल की धड़कने बैचेन हो उठी मेरी साँसे भी रुक - रुक के बाहर आ रहीं थी। 

फिर भी मैं उसके और करीब आते हुए उसके कानों में धीमी आवाज में बोला - "बताओ तुम्हें कौन सा रंग लगाऊँ?" 


प्रभा लगभग मेरी बाहों में आ चुकी थी। 


 "मुझे ऎसे रंग में रंग दीजिए गनेश बाबू जो कभी नहीं उतरे। मुझे अपने प्रेम के रंग में रंग दीजिए न।" 



इतना कहकर वह मुझसे लिपट गई। जैसे उसका अपना कोई उससे कई वर्षों बाद मिला हो। मुझे इस बात की लेस मात्र भी अंदेशा नहीं था। कि मुझे बिना मांगे जीवन की सारी खुशियां इतनी सहजता से मिल जाएंगी। मेरे हांथों से गुलाल छूट गया और मेरे हाथ उसे अपनी आगोश में ले चुके थे। 

मेरा दिल उसे हमेशा के लिए अपनी बाहों में समेट कर दुनिया की बुरी नजरों से छिपाने को कर रहा था।  


"प्रभा! क्या तुम मेरी जिंदगी के विरान और तन्हा सफर में मेरी हमसफ़र बनोगी?" 

मैंने वो सब कह दिया जो मैं उससे कई दिनों से कहने की कोशिश कर रहा था। 


प्रभा मुझे कुछ उम्मीद से देखे जा रही थी। पहली बार मैंने उसकी झील जैसी आँखों में चाहत का अथाह सागर देखा था। 

उस वक़्त मेरे दिमाग़ में सिर्फ़ प्रभा थी मैं बस उसकी आँखों में डूबना चाहता था। 


तभी 'प्रभा' नाम की गरजती हुई आवाज ने हम दोनों को अंदर तक हिला दिया। इसकी वजह एक अवांछनीय भय था। क्योंकि प्रभा की माँ ने हम दोनों को एक दूसरे को गले मिलते हुए देख लिया था। 

प्रभा सहमी और डरी हुई सी मुझसे दूर हो गई और गर्दन झुका कर अपनी माँ के पास पहुंच गई। 

प्रभा की माँ ने हम दोनों को जिस स्थिति में देखा था। वह उनके लिए भलेही बुरी और अप्रत्याशित लगे। लेकिन हम दोनों के बीच ऎसा कुछ नहीं था। हमारा प्रेम पवित्र और पावन था। 

लेकिन प्रभा की माँ की भाव भंगिमा इसका विपरीत प्रदर्शन कर रहीं थीं। वह आगे प्रभा और वो उसके पीछे - पीछे मुझे घूरते हुए चली गईं। मैं मौन नीचे गर्दन झुकाय उनको जाते देखता रहा। 

मैं चाह कर भी उन्हें कोई सफाई नहीं दे सका। जिसके मुझे बाद में गंभीर परिणाम भुगतने पड़ें मेरे साथ प्रभा को भी। 

मैंने बाहर जाकर देखा तो प्रभा और उसका परिवार वाले जा चुके थे। मुझे अब डर के साथ प्रभा से दूरी बर्दास्त नहीं हो रही थी। मैं कमरे गया और कपड़े बदल कर बेड पर लेट गया। कमरा भी मुझे किसी कैद खाने जैसा लग रहा था। मेरा दम घुटने लगा था। 

मैं दौड़ता हुआ। छत पर पहुंच गया और सब जानते हुए भी रोजाना की तरह प्रभा का इंतज़ार करने लगा। 

लेकिन प्रभा नहीं आई। मैं क्षितिज में सूर्यास्त को देख रहा था। वह भी आज बहुत उदास प्रतीत हो रहा था। रात्रि के अन्धकार ने मेरी आशाओं की सीमा निर्धारित करते हुए मेरे हृदय में एक चिर अशांति और दुख का अंधेरा उलेढ़ दिया। मुझे सारा संसार घोर शान्ति के काले समंदर में डूबता नजर आ रहा था। 

मेरी अंतरात्मा सुकून के लिए प्रभा की एक झाँकी देखने को तड़प उठी। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। कि मैं अब क्या करूँ? 

मेरे अंदर निराशा और अशांति का इतना घना अंधेरा था कि मेरा मन बहुत रोने का करने लगा। लेकिन मेरे अरमान और आँसू सब दिल में दफ़न होकर रह गए। 

क्योंकि मेरे पास रोने की कोई वजह नहीं थी सबको मैं अपने रोने की वजह क्या बताता? 

रात्रि का अंधेरा और सन्नाटा मुझे चुभने लगा था। मैं निराश और हताश प्रभा के घर की ओर निहारता नीचे उतरने लगा। इस उम्मीद से की प्रभा अभी अपनी पायल छनकाती हुई मुझे आवाज लगाकर रोकेगी! 

परंतु ये संसार न जाने क्यूँ प्रीत के सपने दिखाकर दुख के नर्क में धकेल देता है। ये दुनियां इतनी निर्मोही और कुरूर हो सकती है कि ये प्रेम करने वालों को इतनी बड़ी सजा देगी। ये मैंने आज सोचा और समझ लिया था। 


मैं अपने अधमरे शरीर से कमरे में पहुंच गया और बेड पर पेट के बल लुढ़क गया।


कुछ क्षण बाद मेरे कानों में दीदी की आवाज पड़ी। तो मैं चौक गया। बेड को जब मैंने गौर से देखा तो जहां मेरा सर रखा था वह जगह भीग चुकी थी। 

दरअसल मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे और मेरी आँख लगे हुए कुछ ही मिनिट हुए थे। 

मैंने तुरंत अपने आंसू पोंछे और सामान्य होने का दिखावा करने लगा। 


"मुझे तुमसे कुछ बात करनी है!" 


"हां बोलिये दीदी!" 


"अभी टाइम क्या हुआ है ? देखो तो।" 


मैंने घड़ी देखते हुए कहा कि - "साढ़े नौ बजे हैं दीदी क्या हुआ बतायीये।" 


"तुमने खाना क्यूँ नहीं खाया?" 


"व्व्वो.... मुझे भूख नहीं है दीदी।" मेरा सब दिखावा और धैर्य अपना दम तोड़ने लगा था। 


" मुझे तुमसे प्रभा के बारे में कुछ बात करनी थी।"



" क्क्या? "

इतना सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मुझे मामला कुछ ज्यादा ही गंभीर प्रतीत होने लगा। 


" मैं अभी उनके घर से आ रही हूँ। प्रभा के माता - पिता शीला ताई और रामबाबू ताऊ तुम्हारी वजह से जल्दी घर चले गए। 

तुम्हारे और प्रभा के बीच क्या चल रहा है? 

मैंने तुम्हें इन्तेहान देने के लिए बुलाया था। कि ये सब करने को? बताओ मुझे।" 


दीदी बातों से यही आशय लगाया जा सकता था। कि वह भी प्रभा के माँ के अनुरूप सोच रहीं थीं। लेकिन असल में ऎसा कुछ भी नहीं था। 


मैंने दीदी को समझाते हुए कहा -" दीदी आप सब जो सोच रहें हैं वैसा कुछ नहीं है। हम दोनों बस बातें कर रहे थे।"


" अच्छा अकेले कमरे में गले लग कर........ ।" 

दीदी मेरी बातों को समझना तो दूर सुनना भी नहीं चाह रहीं थीं। 


"तुम्हारा कल इन्तेहान है न। दे आओ और जब बापस आओगे तब तक मैं तुम्हारा टिकट मंगवाती हूँ।"

दीदी की इन बातों को सुनकर मेरे दिल की धड़कन जोर से धड़कने लगीं। क्योंकि मैं अब प्रभा से दूर होने की बात से भी डरने लगा था। 


"दीदी प्रभा मुझे बहुत अच्छी लगती है? और मैं उससे....... ।"

मैं पागलों की तरह दीदी से न जाने क्या क्या मिन्नतें करने लगा। जो मैं सामान्य स्थिति में दीदी के सामने बोलने का साहस नहीं कर पाता था। 


"पागल हो गये हो क्या तुम गनेश? प्रभा दूसरी कास्ट की है। ये सब करके तुम यहाँ सबकी इज़्ज़त मिट्टी में मिलाना चाहते हो? तुम्हारे जीजा को पता चलेगा न तो हम सबकी खैर नहीं। भैया गनेश मुझे जमाने के ताने सुनने के लिए विवश मत करो। कल तुम अपने घर जाओ। ठीक है।" 

इतना कहकर वह कमरे से बाहर जाने के लिए मुड़ी। 


" दीदी मेरी बात तो सुनिए.... ।"


वह मेरी सब बातों को नजरअंदाज करते हुए कमरे से बाहर चली गईं। 


ये मेरे साथ क्या से क्या हो गया था? जिसकी मैंने सपने में भी कल्पना नहीं की थी।

मुझे आज समझ में आ गया था। कि प्रेम करने वाले इस दुनिया को प्यार की दुश्मन क्यूँ मानती है? 

हमारे समाज में प्यार को अलग नजरिये से देखा जाता है। जैसे प्यार एक गुनाह हो।

प्रेम एक पवित्र और आत्मीय कोमल एहसास होता है। जो समाज की रूढ़िवादी और नफ़रत वाली सोच की भेंट चढ़ जाता है।

ऎसा ही गुनाह मैंने प्रभा से प्रेम करके किया था। जिसकी सौगात में मुझे बस तन्हाई और बिछड़न मिली।

मेरा दिमाग सुन्न पड़ गया था। मेरे हाथ पाँव जैसे बेजान हो चुके थे।

मेरे सीने में दिल धड़कने के साथ मेरे दर्द का भी एहसास करा रहा था।

मैं सारी रात सो न सका। सारी रात मेरी खुली आँखों से आसूओं की धार लगातार बहती रही।

मेरी एसी हालत थी तो प्रभा की मेरे बिना कैसी हालत होगी। ऎसे विचार से मेरा दिल सीने में गुदगुदी करता हुआ मानो अपनी जगह से खिसक गया हो।

पता नहीं कब प्रभा को सोचते हुए मेरी आँख लग गई। मैंने अपनी आंखें खोली तो घर के सामने वाले पेड़ पर पक्षी चहक रहे थे। पौ फटते ही मैं छत पर पहुंच गया और प्रभा का इंतज़ार करने लगा हालांकि मैं जानता था कि इस समय प्रभा कभी भी छत पर मुझसे मिलने नहीं आई।

सूर्य की लालिमा अब तेज़ प्रकाश में बदलने लगी थीं। जो मेरी आँखों में चुभ रहीं थीं। क्योंकि मैं रात भर सोया नहीं था। तभी मुझे सीड़ियों पर किसी के आने की आहट सुनाई दी। मैं अपनी आंखों से आंसू पोंछ कर सीड़ियों की ओर देखा तो वहां दीदी खड़ी थीं।

उनके चेहरे के भाव और उनका व्यवहार मेरे प्रति एक घृणा और क्रोध से परिपूर्ण था। जैसे दुनिया में एक गुनहगार के प्रति होता है।


"चलो इन्तेहान के लिए तैयार हो जाओ, मैंने नाश्ता बना दिया है और जब तक बापस लौटोगे तब तक खाना बना दूंगी।" - दीदी का रवैया बिलकुल गैर की तरह था।


मैंने उनकी तरफ बढ़ते हुए कहा - "दीदी मुझे भूख नहीं है।"


"कोई नहीं मैंने राजेश को बोल दिया है। वो अपनी साइकिल कुछ ही देर में यहां रख जाएगा।"


इतना कहकर दीदी नीचे चली गईं और अपने काम में व्यस्त हो गईं। दीदी का इसमें कोई कसूर नहीं था। उनके पैरों में उनके ससुरालवालों द्वारा बनाई गईं व्यक्तिगत मान - मर्यादा और रूढ़िवादी सोच की बेड़ियों में जकड़ी हुईं थीं। क्योंकि उन्हें अपने ससुराल में इन्हीं लोगों के बीच अपने संपूर्ण जीवन का निर्वाह करना था।


मैंने सीड़ियों से उतरते समय प्रभा के इंतजार में उसकी सुनी पड़ी छत पर कातर निगाहें डाली मगर मेरे नसीब में शायद मायूसी के अलावा कुछ भी नहीं था।


उस दिन मैंने सारे काम बेमन किए। मैं प्रभा की एक झलक पाने की खातिर बिन पानी के मछली की तरह छटपटाता रहा। लेकिन मुझे प्रभा की सूरत क्या उसकी जरा सी आहट भी नहीं सुनाई दी।

मैं मायूस और हताश होकर तांगे में सवार होकर न चाहते हुए प्रभा और उसके घर से दूर चला गया।

उसके बिना मुझे दुनिया रास नहीं आती।


तांगा हरी - भरी खूबसूरत वादियों में से गुजरती हुई रेल्वे स्टेशन की ओर बढ़ रही थी। ये खूबसूरत वादियां और फिजाओं का रंग मुझे प्रभा के बिना फीका रंगहीन और सारा जहाँ सूना सा लगने लगा था।

मेरी निःशब्दता और खामोशी चीख - चीख़ कर प्रभा को पुकार रही थी। आज ईश्वर भी मेरे लिए इतना निष्ठुर और कठोर हो जाएगा ये मैंने सोचा नहीं था।

मैं ये नहीं समझ सका कि ईश्वर मेरी प्रेम परीक्षा ले रहा था या फिर प्रेम करने की सजा।


तांगा जैसे ही मोड़ पर मुड़ा वैसे ही मेरी जिंदगी ने भी एक अविश्वसनीय मोड़ लिया। क्योंकि सामने कुछ ही दूरी सड़क के किनारे प्रभा अकेली खड़ी थी। पहली बार तो मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था क्योंकि मुझे लगा कि मैं पिछली रात से उसके बारे में सोच रहा हूँ शायद ये मेरा भ्रम हो?


तांगा उसके बिल्कुल नजदीक पहुंचा तो मैंने तांगे वाले से तांगा रोकने को बोला। जैसे ही तांगा रुका तो प्रभा की आवाज मेरे कानों मैं पड़ी।


"गनेश बाबू....... ।"



"प्रभा...... ।" इतना कहकर मैं तांगे से झट से उतर कर प्रभा के पास पहुंच गया।

प्रभा बिना कुछ बोले मुझसे लिपट कर फफक - फफक कर रो पड़ी। बिना वजह जाने मेरी आँखों में आँसू भर आए और मेरा गला रुन्ध गया।

बस हम दोनों एक दूसरे के गले लगकर रोए जा रहे थे।


" गनेश, मैं तुमसे एक बात कहना चाहती हूँ जो मैं उस दिन तुमसे नहीं कह पाई। क्या पता जिंदगी में हम कभी मिले या फिर न मिले।" - प्रभा सिसकते हुए बोले जा रही थी।


"ऎसे न कहो प्रभा।"


"मैं तुमसे प्यार करती हूँ गनेश। और हमेशा तुम्हीं से करूँगी।"


मुझे प्रभा से मिलकर बहुत खुशी हो रही थी। जैसे किसी कैदी को जीवन दान मिला हो।


" प्रभा मैं वादा करता हूं। मैं तुम्हारे लिए ही इस दुनिया में आया हूँ। मेरी आख़िरी साँस तक तुम ही मेरी चाहत रहोगी।"


"वादा न करो गनेश। मुझे वादे से डर लगता है। क्योंकि वादा टूट जाता है।"


"मेरी बात मानो प्रभा तुम भी मेरे साथ चलो। हम दोनों दुनिया से दूर कहीं अकेले रहेंगे।"


" नहीं गनेश! कल शाम को मेरी मां ने मुझे कमरे में बंद कर दिया और मैं सारी रात तुम्हारे लिए रोती और तड़पती रहीं। सुबह मालती भाभी ने मुझे तुम्हारे बारें में बताया तो मैं तुमसे मिलने को दौड़ी चली आई।"


" प्रभा आज तुमने मुझसे मिलकर मेरी सारी मन्नतें पूरी कर दी। मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।"- मैं प्रभा के सामने गिङगिङा रहा था।



" गनेश, ये दुनिया हमारे प्रेम को स्वीकार नहीं करेगी। तुम जाओ और अपनी सेहत और करियर पर ध्यान दो। मालती भाभी को तुम्हारी बहुत फिक्र हो रही थी इसलिए उन्होने मुझे चुपके से तुम्हारे पास भेज दिया मुझे। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूंगी गनेश।"



"मैं वादा करता हूं। प्रभा मैं दोबारा तुमसे मिलने आऊंगा।"


प्रभा फिर से मेरे गले लग गई। हम दोनों कुछ क्षण बिना बोले एक दूसरे को गले से लगा रहे।

और फिर प्रभा ने नम आँखों से मुझे विदा किया।


मैंने जाते हुए तांगे से मुड़कर देखा तो प्रभा अभी तक मेरी ओर देख रही थीं।

और देखते ही देखते वो मेरी आँखों से ओझल हो गई।


प्रभा की एक मुलाकात से मेरे जीवन में दुखों के बादल कुछ हद तक छट चुके थे। जैसे प्रभा ने मुझे एक नयी जिंदगी तोहफे में दे दी थी।


"तो क्या आप फिर वहां गये?" - विनोद ने डूबते हुए सूरज को निहार रहे गनेश बाबू से कहा।


गनेश बाबू मुड़ कर विनोद के पास पहुंच गए। 

उन्होने एक लंबी गहरी साँस ली और बोलना जारी रखा-"उसके बाद मैं हर दिन सुबह और शाम प्रभा को ही याद करने लगा। उसकी यादों के सहारे मेरे दिन कटने लगे। मैं अपने करियर पर फोकस करने की बजाय प्रभा के पास जाने के अवसर की खोज करने लगा था। क्योंकि प्रभा से दूर हुए मुझे अभी पाँच माह से ज्यादा हो चुके थे। 

मैं प्रभा से मिलने जाता तब तक एक सुबह मेरे पिता जी ने मुझसे मालती दीदी के डाक के बारे में जानकारी दी। 

मैंने दीदी का संदेशा पढ़ा तो मुझे बहुत बड़ा धक्का लगा। मैं सन्न रह गया था। क्योंकि उनके संदेशा मैं लिखा था। कि प्रभा की शादी उसके गाँव के पास वाले शहर के व्यापारी रमेश जैन के साथ हो गई है। 

मेरे रातों का सुकून, नींद, प्यास और भूख सब जा चुके थे। मैंने खुद को एक कमरे में बंद कर लिया और प्रभा की याद में तड़पने लगा। लेकिन वहां मेरे आँसू और मेरे दर्द को महसूस करने वाली प्रभा नहीं थी। 

मैंने प्रभा घर जाने का विचार त्याग दिया और इस तरह मैंने प्रभा को दिया हुआ वादा तोड़ दिया। यही मेरे जीवन की सबसे बड़ी भूल थी। जिसके परिणाम स्वरूप मैं आज तक सुकून की तलाश में भटक रहा हूँ। 


यूहीं दिन बीतते गए। मेरे दोस्तों और परिवार वालों ने मुझे समझाया और ढांढस बंधाया कि प्रभा ने तुम्हारे साथ और खुद के साथ अच्छा किया। जो शादी कर ली। जिससे उसकी जिंदगी सुधर जाएगी और तुम्हारी भी। इन बातों में मुझे कुछ सच्चाई नजर आई और मैं धीरे धीरे प्रभा को भुला कर अपने करियर पर ध्यान देना शुरू कर दिया। 

कुछ महीनों के दौरान मैं सरकारी कॉलेज में अध्यापन के कार्य में संलग्न हो गया। अब मैं प्रभा को लगभग बुला चुका था। लेकिन जब भी शादी की बात आती तो मुझे प्रभा के सिवाय कोई दूसरी लड़की पसंद नहीं आती और न ही मेरा शादी करने का कोई इरादा रहा। 


बीस साल बाद होली की छुट्टियों के अवसर पर मैं घर जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर अपने मित्र रामशरण सिन्हा के साथ ट्रेन का इंतज़ार कर रहा था। स्टेशन पर यात्रियों की काफ़ी भीड़ थी। मैं अपने मित्र रामशरण के साथ बातचीत में व्यस्त था। कि तभी मेरे हाथ को पीछे से किसी ने हिलाकर आवाज लगाई - "बाबू जी कुछ खाने को दे दो। कल से खाना नहीं खाया।" 

वह आवाज दर्द के साथ अपनेपन की आंशिक झलक लिए हुए थी। आवाज कुछ जानी पहचानी सी लग रही थी। व्यस्तता के चलते मैं उसे नजरअंदाज कर दिया। इसे इत्तेफाक समझ कि स्टेशन पर कई तरह के व्यक्ति आते और जाते रहते हैं। तो आवाज एक जैसी होना आम बात है। 

भिखारियों के प्रति मेरी सहानुभूति होने के कारण मैंने उस महिला की ओर देखे बिना ही 

दस रुपए का नोट उसकी ओर बढ़ा दिया और अपने मित्र के साथ बातचीत को जारी रखा। 


कुछ सेकंड बाद मैंने गौर किया। कि मेरे हाथ से उस महिला ने पैसे नहीं लिए तो मैंने हैरानी भरे लहजे से पीछे मुड़कर देखा। कि वह महिला मेरे हाथ में नोट को देखे जा रही है। 

मैले और फटे कपड़ों के गठरी में फँसा उसका अस्थिपँजर शेष शरीर और खुले आधे सफ़ेद बाल, अपनापन लिए हुए चेहरे पर बिखरे हुए थे। 

उसके मुँह से बाहर निकल रहे दाँत और जबड़े से चिपके गाल उसकी दयनीय स्थिति को दर्शा रहे थे। 

वह महिला मुझे गौर से देखे जा रही थी। जो मेरे लिए आश्चर्य का विषय बना हुआ था। 

ऎसे हृदय विदारक दृश्य को देख कर मैं सबकुछ भूल गया। मैंने गौर से उस चेहरे को देखा तो मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मेरी हृदयगति तेज़ हो गई और सांसे मेरे गले में अटक गईं। 


मैं कुछ बोल या कर पाता तब तक वह महिला बोली - "गनेश बाबू........ ।" 


दरअसल वह महिला कोई और नहीं बल्कि मेरी 'प्रभा' थी। 


उसके मुँह से अपना नाम सुनकर मेरे मुँह से अनायास एक ही बात निकली - "मेरी प्रभा..... ।" 


रामशरण मेरे बर्ताव को देख कर आश्चर्यचकित था। मेरा सारा शरीर बहुत जोरों से काँप रहा था। 

तभी वहां एक और भिखारी आया। उसने देखा कि प्रभा ने मेरे हाथ से पैसे नहीं लिए तो उसने प्रभा को "चल पागल कहीं की...... ।" कहकर धक्का दे कर गिरा दिया और पैसों की तरफ लपका। 


ये देख कर मेरा खुद पर काबू नहीं रहा। मैंने गुस्से से उस भिखारी के हाथों में दस का नोट थमाते हुए बोला - "वह पागल नहीं है समझा। ये पैसे पकड़ और यहां से निकल।" 


वह भिखारी मेरे गुस्से को देख भयभीत होकर वहां से चला गया। 

मैंने प्रभा की ओर देखा वह जमीन पर पड़ी रो रही। मैंने उसे सहारा देकर बिठा दिया था। 


"मैं पागल नहीं हूँ गनेश.... ।" प्रभा हिचकी लेते हुए मुझसे बोली। 


" नहीँ नहीं .....तुम पागल नहीं मेरी प्रभा हो। अब मैं आ चुका हूं न सब ठीक कर दूँगा। ये सब कैसे हो गया प्रभा।" 


मैं प्रभा की हालत को देख कर रो पड़ा। मैं प्रभा को अपने गले लगा चुका था। वह बेतहासा रोये जा रही थी। जैसे किसी माँ बिछड़ा हुआ बच्चा कई सालों बाद अपनी माँ से मिलकर रोता है। 


" तुमने वादा किया था न। मुझसे मिलने का फिर क्यूँ नहीं आए तुम। क्या तुमको मुझसे प्रेम नहीं रहा। तुम्हारे लिए मैंने अपने पति और दुनिया के ताने सुने। सिर्फ़ तुम्हारे लिए और तुमने मुझे प्रेम करने की ये सजा दी गनेश।" 


प्रभा की ये बातें मेरे सीने में खंजर की भाँति चुभती चलीं गईं। यही बातें आज तक मेरी कठोरता और उदासीनता को कचोटती हैं। 


" प्रभा तुम्हारी शादी हो गई थी। इसलिए मैं तुम्हारी निजी जिंदगी में दखल नहीं देना चाहता था।"


" बाबू जी तुम्हारे इंतज़ार में मैंने कई महीने गुजार दिए पर तुम नहीं आए। मेरे घर वालों ने मेरी जबर्दस्ती शादी कर दी। क्योंकि मैं तुम्हारे इंतज़ार में पागल हो चुकी थी।"


प्रभा ठीक से बोल भी नहीं पा रही थी। क्योंकि कमजोरी की वजह से उसको बीच बीच में खांसी आ रही थी। लेकिन वह एक साँस में सब कुछ बोल देना चाहती थी। जैसे उससे कुछ बरदाश्त नहीं हो रहा था। 


" ऎसा न कहो प्रभा। मुझे माफ कर दो। अब मैं आ चुका हूं सब ठीक कर दूँगा। मैं आज भी तुमसे उतना ही प्यार करता हूँ। जितना बीस बरस पहले करता था। मैंने तुम्हारे इंतज़ार में शादी नहीं की प्रभा.... ।" 

मैंने रोते हुए प्रभा को अपने दिल का सारा हाल बता दिया। 



"गनेश मैं तुम्हारी शुक्रगुजार हूं कि तुम्हारी मुलाकात ने मेरे इंतज़ार को एक ठिकाना मंजिल दी। लेकिन गनेश अब बहुत देर हो चुकी है। मुझे इस दुनिया के सितम दर्द नहीं सहे जाते।"

इतना कहकर वह अचेत होने लगी। उसकी आँखे बंद होने लगी थी। मैंने उसका सिर अपनी गोदी में रख लिया। 

मैं निःशब्द हो चुका था। मैं केवल उसको पुकारता हुआ रोये जा रहा था। 

उसने मेरे गाल पर हाथ रखा और मेरी ओर देखते हुए बोली -" पता है तुम्हें? मैंने तुम्हारी याद में कैसे दिन काटें हैं गनेश...? कई रातें तुम्हारी याद में जागकर और रोकर काटी हैं। आज तक मेरी साँसे तुम्हारे इंतज़ार में चल रहीं थीं। आज इनको सुकून मिला है। गनेश अब मुझसे दर्द सहा नहीं जा रहा।" 



"प्रभा तुम ठीक तो हो न। रुको मैं तुम्हें अभी डॉक्टर के पास ले जाता हूँ। मैं तुमको कुछ नहीं होने दूंगा।"

मैंने प्रभा के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा। उसकी हालत बहुत बिगड़ती जा रही थी। वहाँ पर भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। सब अचंभित थे। 

मैंने रामशरण को आवाज लगाई "रामशरण जल्दी एंबुलेंस को बुलाओ जल्दी..... ।"


तभी प्रभा ने मेरे हाथ पर हाथ रखते हुए एंबुलेंस को बुलाने की असहमति में सिर हिलाया और कहा - "रमेश को पता चला कि मैं तुमसे प्यार करती हूं और मेरे बर्ताव को देख कर उसने दहेज के बहाने मुझ पर बहुत सितम किए गनेश पर मैं तुम्हारे प्रेम की खातिर सब कुछ सहती रही और एक दिन उसने मुझे घर से बाहर निकाल दिया। अब उसने दूसरी शादी कर ली। मैं बेघर हो दर - दर भटकती हुई इस स्टेशन पर इस आश में आई क्या पता तुम कब मेरा इंतज़ार करते हुए मेरे घर के लिए इस स्टेशन से गुजरो। लेकिन तुम नहीं आए.... ।"



" मुझे माफ़ कर दो प्रभा। मुझे कोई भी सजा दे दो। मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ...... ।"




" श्श्श... तुम मेरा प्यार हो? तुम्हारे प्यार की बदौलत ये सांसे आज तक चल रहीं हैं। दुनिया के इतने सितम करने के बावजूद भी। लेकिन पता है तुम्हारे चले जाने के बाद गनेश, लोगों ने मुझे बहुत सताया है और बहुत सारे जख्म दिए हैं मुझे। एक बार मुझे गले लगाकर मेरे सारे जख्मों पर अपने प्यार की मरहम लगा दो। ताकि मैं मरने के बाद भी सुकून से रह सकूँ।"


" ऎसा न कहो प्रभा। बस मेरी ख़ातिर। मैं तुमको कुछ नहीं होने दूंगा। मैं तुम्हारे बिना कैसे जीउँगा प्रभा?"


मैंने प्रभा को गले लगा लिया। प्रभा फूट - फूट के रो पड़ी। उसकी आँसुओं के धारे मेरे कन्धे को भीगा रहे थे। मैं उसके आँसुओं की गर्माहट को महसूस कर सकता था। 

तभी उसकी सिसकियाँ रुक गईं और उसका बदन जकड़ने लगा। भय और अनिष्ट की शंका से मेरी आँखे फटी रह गईं। 

मैंने प्रभा को देखा तो उसकी साँसे हमेशा के लिए रुक चुकीं थीं और आँखे खुली रह गईं थी। उसके गालों के गड्ढे आंसुओं से तर थे। 


मैं बेहताशा चीख - चीख कर प्रभा को आवाज लगाते हुए रोने लगा। 

रामशरण और मैं उसे आनन फानन में हॉस्पिटल ले गए। 

वहां चार - पांच मिनट बाद डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया। 

मैं प्रभा के पार्थिव शरीर से लिपट कर रोने लगा तभी रामशरण ने मुझे संभाला। रामशरण ने डॉक्टर से प्रभा की मृत्यु का कारण पूछा तो डॉक्टर ने कहा - "इनकी मौत ब्रेन डेड (ब्रेन हेमरेज) की वजह से हुई है। ब्रेन हेमरेज होने के एक ही वजह है। ब्रेन में ब्लड की सप्लाई रुक जाना। तुम लोगों को तो भगवान का धन्यवाद करना चाहिए। कि ये मेंटली टॉर्चर, हाइपर टेंशन और कमजोरी के होने के बाद भी ये अभी तक जिंदा रही। ये चमत्कार है।"


दरअसल मेरी प्रभा को ब्रेन हेमरेज ने नहीं इस जुल्मी दुनिया ने मार डाला था।और इस जुल्मी दुनिया का एक इंसान में भी था। 


गनेश बाबू अपनी दास्तां सुनाते सुनाते भावुक हो गए और उनकी आँखों से बह रहे आँसू उनके पश्चाताप के द्योतक थे। 


विनोद, गनेश बाबू के पास गया और सामने जाकर उनकी हथेलियों को अपनी मुट्ठी में समेट लिया। विनोद के चेहरे पर भी उदासी की लकीरें दृष्टिगोचर हो रहीं थीं। उसका हृदय भी अंदर से अपने भावों को उसके होंठों तक लाने को आतुर हो रहा था। 


विनोद ने महसूस किया कि गनेश बाबू के हाथ ज़ोर से तप रहे थे। उन्हें तेज़ बुखार था। 

विनोद अंदर ही अंदर खुद को गनेश बाबू की इस हालत का जिम्मेदार मानने लगा था। 


क्षैतिज में सूर्य अपनी लालिमा बिखेरता हुआ अपने अस्तचल की ओर बढ़ने लगा था और आसमान में अपने घरों को लौटते हुए पक्षियों का कलरव रात्रि के आगमन का वोधक था। 

होली का उत्सव अब हल्का पड़ चुका था। ज्यादातर लोग अपने घरों में चले गए थे और कुछ अपने घरों की चौपाल पर अपने मित्रों के साथ बैठ गए। जिससे दोपहर की अपेक्षा शोरगुल मंदीम पड़ चुका था। 


"बाबू जी आपको बुखार है? चलिए आपको मैं आपको, आपके रूम तक छोड़ देता हूँ।" 

विनोद गनेश बाबू को सहारा देते हुए सीड़ियों की ओर बढ़ना चाहा। 

तभी गनेश बाबू ने तकरीबन हँसते और विनोद के कंधे को थपथपाते हुए कहा - " नहीं विन्नू इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। ये मेरे रोजमर्रा जीवन का हिस्सा है।"


" बाबू जी! मुझे माफ कर देना। मैंने आपसे ये पूछ कर तक़लीफ दी। मुझे ऎसा नहीं करना चाहिए था।" 

विनोद ने माफ़ी के उद्देश्य से नम्र होते हुए कहा। 


"ऎसा कुछ नहीं है विन्नू। तुम बेवजह खुद को शर्मिंदा कर रहे हो। ओह!"-गनेश बाबू ने सहसा रुक कर पीछे मुड़कर मेज की तरफ देखा। जो छत पर रखी हुई थी। 


" क्या हुआ बाबू जी?"


" कुछ नहीं विनोद! बातों ही बातों में मैं अपना चश्मा मेज पर ही भूल गया था।" 


गनेश बाबू ने अपने कुर्ते की जेब से रूमाल निकाला और चश्मे को साफ कर के पहन लिया और विनोद के साथ सीड़ियों से नीचे उतरने लगे। 


विनोद, गनेश बाबू के चेहरे पर अपनी निगाहें गढा़ए हुए था। जैसे वो उनके चेहरे के भावों को पढ़ रहा हो। कि वो कैसे अभी तक तन्हाई और ग़मों से भरी जिंदगी को अपनी झूठी खुशी के दिखावे से गुमराह किए हुए जी रहें हैं। 



"ये सब कैसे कर लेते हो बाबू जी आप?" 

विनोद, गनेश बाबू जी के चेहरे को अवलोकित करते हुए प्रश्न किया। 


विनोद की इस बात पर गनेश बाबू ने एक झूठी मुस्कान से अपने चेहरे की झुर्रियों को गहराते हुए कहा - "अरे विन्नू! ये जो मेरे शरीर की तपन है न जिसे तुम बुखार कह रहे हो ये तो तब से है जब से प्रभा का साथ छूटा है। ये कोई बुखार नहीं है ये मेरी सजा है प्रभा को भूलने की। ये विरह की अगन मुझे अंदर से सालों से राख करती हुई आ रही है। फिर भी मैं जिंदा हूँ क्योंकि उसकी यादें और उसकी सूरत आज भी मेरे दिल में धड़कनों में बसती हैं। अब तो मुझे जो मेरी चंद सांसें बची हैं उन्हें यूहीं हँसते हुए गुजारना है। शायद मेरी प्रभा को मुझ पर दया आ जाये और वो मुझे मेरे द्वारा किए गए गुनाहों की माफ़ कर दे।"


गनेश, बाबू अपने कमरे में बेड पर एक लंबी साँस लेते हुए बैठ गए और विनोद को भी अपने हाथों से बैठने का इशारा किया। 

कमरे में बल्ब जल रहा था। क्योंकि सूरज ढल जाने के कारण अन्दर कमरे में अंधेरा हो चुका था। 


" पता है विन्नू आँखों के आँसू बाहर और अंदर से कितना सुकून देते हैं। लोग माने या न माने लेकिन ये आंसू मुझे बहुत शीतलता प्रदान करते हैं। अब यही मेरी जिंदगी के सच्चे हमसफ़र हैं।" 

इतना कहते हुए गनेश बाबू अपने दोनों हाथों को पीठ पीछे बेड से टिका देते हैं और उन दोनों के सहारे वो पीठ की तरफ झुक कर छत की ओर देखने लगे। 


उनकी आँखों के निचले पलक पर आंसुओं के धार के निशान सूख गए थे। वो अभी तक इसलिए दिख रहे थे। शायद वो अपने आँसुओं को रोकने या फिर उन्हें पोछने में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये तो अब स्वभाव में आ चुके थे। 


"बाबू जी आप ये सब भुला क्यूँ नहीं देते। जो हुआ सो हुआ। भूल जाओ सब और जिंदगी के बचे हुए दिनों को सुकून से जीओ।" - विनोद ने गनेश बाबू के पास बैठते हुए कहा। 


गनेश बाबू ने एक हल्की हंसी के साथ कहा - "विन्नू तुम मुझे जीने के लिए जो उपाय सुझा रहे हो न। वो तुम्हारी नजर में जीने का उपाय होगा। लेकिन ये मेरी जिंदगी का आखिरी पल होगा जब मैं प्रभा को भुला चुका होऊंगा।"


उन्होंने बात को जारी रखते हुए कहा कि - "जिंदगी में जब सच्चे प्यार या हमसफ़र का साथ छूट जाता है। तो जिंदगी के मायने बदल जाते हैं। जिंदगी में पहले जैसा कुछ नहीं रहता। जिनकी हम तमन्ना रखते हैं। जिंदगी का सफर हमेशा के लिए अधूरा ही रह जाता है।"


" विन्नू अब तुमको अपने घर जाना चाहिए। वैसे पता है विन्नू! तुम्हारे साथ अच्छा लगता है, मुझे।"


विनोद, गनेश बाबू से बहुत हिलमिल गया था। गनेश बाबू भी विनोद को अपनी आप बीती को सुनाकर हल्का सा महसूस कर रहे थे। 


" बाबू जी। अब मैं चलता हूँ। आप आराम किजिए। जय श्री राम।"- विनोद दरवाजे की ओर बढ़ते हुए बोला। 



" रुको! विन्नू, मैं भी चल रहा हूँ तुम्हारे साथ गेट तक।" - गनेश बाबू ने अपना चस्मा ठीक करते हुए कहा। 


गनेश बाबू ने जाते हुए विनोद की तरफ मुस्कुराते हुए देखा। वो समझ चुके थे। कि उनकी बातों से विनोद के स्वभाव में परिवर्तन हो चुका। शायद अब विनोद समझदार हो चुका था। 

विनोद के आँखों से ओझल हो जाने के बाद गहराते रात्रि और निराशा के अँधेरे ने गनेश बाबू के मस्तिष्क में अपना डेरा जमा लिया था। 

वीरान सी जिंदगी के तन्हापन ने उनके चेहरे की मुस्कान को हमेशा की तरह दुख की रक्तरंजित चिरकालीन रेखाओं में परिणित कर दिया। जैसे किसी ने निर्दयता पूर्वक किसी नुकीले खंजर से उनके माथे पर उकेरी हों। 


गनेश बाबू ने दरवाजे को बंद किया और अपनी चार मंजिला कोठी की ओर निहारा। 

जिससे उनके चेहरे पर मुस्कान का शोक के विरुद्ध द्वंद्वात्मक भाव का प्रारुदुर्भाव हुआ। क्योंकि 'प्रभा की यादें' अंदर उनका इंतज़ार कर रहीं थीं। 

       

               🥀समाप्त🥀

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  1. आपकी लिखी हर रचना अनोखी ही होती है,,, चाहे मोहिनीगढ़ की डरावनी रातें हों या होली की ये धूमिल स्मृतियां!!!

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Thanks for read my article
🥀रसिक 🇮🇳 🙏😊😊

Best for you 😊

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