Town of Death chapter six

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           टाउन ऑफ़ डेथ - अध्याय _०६ 
   (ᴅᴏɴ'T ᴄʀᴏsS ᴍᴏʜɪɴɪɢᴀᴅʜʼS ʙᴏʀᴅᴇʀ) 
 

✍🏻लेखक :- सोनू समाधिया `रसिक' 🇮🇳 







दोपहर के खाने के बाद सभी आराम करने चले गए। क्योंकि उनके दो दिन भाग - दौड़ और जिंदा रहने की जद्दोजहद में बीते थे।
नेहा और दीप्ति, निकिता वाले कमरे में निकिता के बेड के सामने सोफ़े पर बैठीं थी।

वो निकिता की ओर देखे जा रहीं थीं। निकिता की हालत फ़िलहाल स्थिर थी, वो सो रही थी।

सुरक्षा की दृष्टि से निकिता और रजनीश के हाथ और पैर रोनित की तरह बेड से बांध दिए गए थे। सभी लोग परेशान थे, उन्हें इस मुसीबत से बाहर निकलने का रास्ता नहीं दिख रहा था।
उनकी उम्मीदें केवल विक्रांत पर टिकी हुई थी कि वह ही एकलौता इंसान है, जो उन्हें इस मुसीबत से बाहर निकालेगा। 

"विक्रांत! हम सब पर खतरा बढ़ता ही जा रहा है। इस घर में भी अब हम सेफ नहीं है।" - प्रवीण ने प्रोफेसर राणा की ओर देखते हुए कहा। 
प्रवीण, प्रोफ़ेसर और विक्रांत, रोनित के पास बैठे हुए थे। 

"बात तो सही कह रहे हो। हमें अब ज्यादा चौकन्ने रहने की जरूरत है। वैसे फ़िलहाल तो इस मुसीबत से निपटने का कोई उपाय या प्लान नहीं है, मेरे दिमाग में। कोई आइडिया या प्लान आया मेरे दिमाग़ में, तो मैं तुम सबको जरूर बताऊँगा।" - विक्रांत ने एक लंबी अंगड़ाई लेते हुए कहा। 

" यार नेहा! मुझे नहीं लगता कि रोनित ठीक होगा। उसकी हालत देखी तूने, कितनी बिगड़ चुकी है? उसने तो रात से खाना भी नहीं खाया। मेरा तो माल भी फिनिश हो गया। मुझसे तो रहा नहीं जा रहा। क्या करूँ यार मैं?"

दीप्ति, खुद में महसूल थी। नेहा उसकी बातों को नजरअंदाज करते हुए। खिड़की के पास पहुंच गई। खिड़की से बाहर की ओर देख रही नेहा के चेहरे पर चिंतन की गहरी रेखाएँ उभर रहीं थीं। शायद वह गहरी सोच में थी। 
उसे दीप्ति की कोई भी बात सुनाई नहीं दे रही थी। 
मोहिनीगढ़ के इन हसीन वादियों में क्या कोई कह सकता है। कि इतने खूबसूरत नजारों में एक मनहुश शाप और मौत का अंधेरा भी छिपा होगा? 
बाहर सुदूर क्षेत्र में फैली मनमोहक हरियाली और बर्फ की हल्की चादर ओढ़े स्वेत पर्वत झरनों की हल्की सी ध्वनि को लिए मौन मुद्रा में खड़े हुए थे। सूर्य की मंदीम धूप हाङ कंपा देने वाली सर्दी में थोड़ी सी राहत दे रही थी। 

 इसी बीच नेहा की नजर बंगलों के बाउंड्री के पास वाली झाड़ी पर गई। उसे वहाँ कोई खड़ा हुआ महसूस हुआ। जैसे वहाँ से कोई उसे चुपके से देख रहा हो।

कुछ पल के लिए उसे खुद का वहम लगा। क्योंकि वह अजनबी झाड़ियों की ओट में छिपा हुआ था। लेकिन उसने अपनी नजरें वहीं गढ़ा रखीं और कुछ देर बाद नेहा को एक युवक वहां से जाते हुए दिखा। 

"एक और इंसान, वो भी मोहिनीगढ़ में? ये कैसे पॉसिबल हो सकता है? ये मेरा वहम है या फिर विक्रांत झूठा है?" 

ये बातें नेहा के दिमाग़ में घूमने लगीं। आखिरकार यहां चल क्या रहा है? यह बात उसकी अब तक समझ में नहीं आई थी। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। 

अन्त में उसे रहा नहीं गया और वह बिना बताए बंगलों से बाहर उस लड़के को ढूंढने लगी। उसके पहुंचने से पहले ही वह लड़का वहां से चला गया था। लेकिन नेहा बात की तह तक जाना चाहती थी। 
नेहा ने उस लड़के को ढूंढने की बहुत कोशिश की, उसे आसपास ढूंढा लेकिन वहां कोई नहीं दिखा। 
नेहा निराश हो कर जैसे ही बंगलों की तरफ बापस लौटने के मुढ़ी, तो उसे दूर जंगल की ओर वही लड़का दिखा उसने स्लेटी रंग का हूड पहना रखा था। वह नेहा से काफ़ी दूर था। फिर भी नेहा ने अपने कदम उसकी ओर तेजी से बढ़ा दिए। 

नेहा के वहां पहुंचते ही वह लड़का फिर से गायब हो चुका था। नेहा अब काफ़ी परेशान हो चुकी थी। वह थकान की वजह से हांफ रही थी। सर्दी उसके शरीर को सुन्न करती जा रही थी। अब उसे गुस्सा आ रहा था। 

नेहा ने अपनी चारों ओर नजर दौड़ाई। तभी उसके पास के पेड़ पर बैठे सारे पक्षी सहसा चहचहाते हुए उड़ गए। पक्षी ऎसा व्यवहार तभी करते हैं। जब कोई इंसान या फिर जानवर उनके करीब होता है। 

नेहा ने उस तरफ़ मुड़ते हुए कहा कि - "ओ हैलो, मिस्टर, तुम जो कोई भी मिस्टर या मिस्ट्रैस। ये लुका छुपी का खेल अब खत्म करें। मुझे पता है कि तुम यहीं हो।" 


नेहा को जब कोई जबाब नहीं मिला तो वह उसी दिशा में आगे बढ़ने लगी। जैसे ही नेहा उस पेड़ के करीब पहुंची, तो वह चीख कर नीचे गिर गई और गिरकर छटपटाने लगी। 

नेहा को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कि उसके साथ क्या हो रहा है? वह चाह कर भी अपने शरीर पर नियंत्रण नहीं रख पा रही थी। 
उसी समय उसके कंधे की तरफ बाँह पर असहनीय तेज़ जलन हुई। मानो जैसे किसी ने उसकी बाँह पर जलता हुआ, कोयला रख दिया हो। 
नेहा ने हड़बङाते हुए अपनी जैकेट निकाल फेंकी और इनर को भी बाँह से फाड़ दिया। 
तब उसने अपनी बाँह को देखा, तो उसकी बाँह पर बने खरोंच के निशान आग की ज्वाला की तरह दिख रहा था। वहाँ से उसकी बॉडी में स्क्रेच बन रहे हैं। जो उसकी बॉडी में फैलकर उसे नश्ताबूत करने वाले थे। 
नेहा के पूरे शरीर में जलन के साथ एक खिंचाव और एँठन शुरू हो गई, जिसने दर्द को उच्च स्तर पर पहुंचा दिया। जो नेहा की सहनशक्ति से परे था। 
खिंचाव और एँठन कुछ ही देर में नेहा के शरीर को छोटे - छोटे माँस के टुकड़ों में बदलने वाला था। कि तभी इससे पहले नेहा को एक जोर का झटका महसूस हुआ और किसी ने उसे खींच कर दूर धकेल दिया। 
नेहा ने महसूस किया। कि उसका शरीर अब सामान्य महसूस कर रहा था। तभी उसे वही लड़का खड़ा दिखा। 

"तुम...........?" - इतना कहते ही नेहा बेहोश हो गई। 


बंगले पर दीप्ति अपनी बातों में मगन थी। उसे ये भी नहीं पता था कि नेहा उसके पास है भी या नहीं। 

"यार नेहा, अगर माल की जुगाड़ नहीं हुई, तो मैं नहीं जी पाऊँगी यार। सिगरेट भी मेरी उसी पर्स में रह गई। बताओ अब मैं क्या करूं। तू कुछ बोलती क्यूँ नही........ नेहा?" - दीप्ति ने पीछे की ओर मुड़ते हुए कहा। 

दीप्ति ने पीछे देखा तो वहाँ नेहा नहीं थी। तो उसने एक लंबी साँस ली और अपने सर से अपने हाथ ठोकते हुए खड़ी हो गई। 
दीप्ति खड़े होकर पास वाले कमरे में पहुंच गई। 

" गाइस! किसी ने नेहा को देखा? वह कहीं दिख नहीं रही।"

" क्या? दिख नहीं रही से क्या मतलब?" - विक्रांत ने कहा। 


"दिख नहीं रही, उसे ढूंढो। वह चली कहाँ गई। बिना बताएं। प्रवीण तुम बंगले में ढूंढो और मैं, विक्रांत उसे बाहर ढूंढते हैं। मिले तो बता देना। चलो जल्दी क्विक..।"-प्रोफ़ेसर ने कहा। 

सभी लोगों ने सारा बंगला और उसके आसपास एरिया छान मारा। लेकिन नेहा का कोई अता पता नहीं चल सका। 

" मुझे लगता है कि नेहा मोहिनीगढ़ के जंगल की ओर गई है। क्योंकि अब वही जगह बची है। जहाँ पर हम सभी ने उसे नहीं ढूंढा है।"-विक्रांत ने अपना अनुमान सभी से साझा करते हुए कहा। 


"हमें २ घंटे हो गए उसे ढूंढते हुए। कहीं उसे किसी भेड़िये या फिर दूसरे जानवर ने तो.......... ।"-दीप्ति ने रोते हुए कहा। 

" नहीं, ऎसा नहीं है। क्योंकि मानव भेड़िये दिन में बाहर नहीं निकलते और दिन ढलने में कुछ ही समय बाकी है। इससे पहले हमें नेहा को ढूँढना पड़ेगा। नहीं तो हम उसे हमेशा के लिए खो सकतें हैं।"- विक्रांत ने चिंता जाहिर की। 

" अरे यार! नेहा को क्या सूझी जो बिना बताये चली गई। कम से कम बता कर तो जाती।"-प्रवीण ने झुंझलाहट में कहा। 

" ये विक्रांत वहाँ क्या कर रहा है?"- दीप्ति ने असमंजस में कहा। 

विक्रांत, सभी से कुछ दूर मोहिनीगढ़ के जंगलों की ओर जाने वाले रास्ते में बैठ कर उस रास्ते का मुआयना कर रहा था। वह रास्ते की मिट्टी को उठा कर सूँघ रहा था। जैसे वह मिट्टी से नेहा की गंध को पहचान रहा हो। नेहा उसी रास्ते से गुजरी थी। 

"मुझे तो इसमें कुछ गड़बड़ लग रही है?" - प्रवीण ने कहा। 

सभी लोग विक्रांत के पास पहुँच जाते हैं। तो विक्रांत खड़ा हो जाता है। 

"क्या कर रहे थे तुम?" - दीप्ति ने पूछा। 

"कुछ नहीं बस, नेहा को सारी जगह ढूंढ लिया। सिवाय इस रास्ते के, तो रास्ते में उसका कोई निशान ढूंढ रहा था। शायद कोई पैरों या फिर कोई भी निशान मिल जाये। क्योंकि रात होने वाली है।" 


"वैसे ये रास्ता कहाँ जाता है?" - प्रोफेसर राणा ने विक्रांत से पूछा। 

"ये रास्ता मोहिनीगढ़ के जंगलों की ओर जाता है।"

" क्या?"
सभी के चेहरे पर भय की लकीरें उभर आईं। 

" डर इस बात का नहीं है। कि आगे मोहिनीगढ़ के जंगल हैं। डर तो इस बात का है कि आगे मोहिनीगढ़ की सीमा समाप्त हो जाती है और जंगल की शुरू हो जाती है। कहीं नेहा ने उसे पार न कर ली हो?"

विक्रांत की इस बात से सभी की दिल की धड़कने तेज़ हो गईं। 

"यार तो हम सब यहां फालतू बातों में टाइम वेस्ट क्यूँ कर रहें हैं। चलकर नेहा को रोकते क्यूँ नहीं है?"- दीप्ति ने परेशान होते हुए कहा। 

" हाँ, दीप्ति सही कह रही है। चलो उसे ढूंढते हैं। कोहरा भी गहराता जा रहा है।" - प्रवीण ने सहमति जताई। 

"भगवान न चाहे नेहा शापित हो या फिर वह सीमा पार करे।"-प्रोफेसर ने प्रार्थना की। 


सभी लोग जल्दी जल्दी नेहा को आवाज लगाते हुए आगे बढ़ रहे थे। 
कुछ दूर तक चलने के बाद, 
सबसे आगे चल रहे विक्रांत ने हाथ फैलाकर सभी को रोक लिया। 

" अब क्या हुआ?" - दीप्ति ने कहा। 

" मोहिनीगढ़ की सीमा यहीं तक है।"- विक्रांत ने समझाते हुए कहा। 


"तो नेहा कहाँ है?" - प्रोफेसर ने चिंता जताई। 

"ढूंढो उसे यहीं होना चाहिए उसे।" - विक्रांत ने कहा। 

"यहाँ कहाँ? मुझे तो दिख नहीं रही?" - प्रवीण ने कहा। 


“कहीं उसने बार्डर क्रॉस तो नहीं कर लिया? कहीं वो भी खरगोश की तरह………!”

“दीप्ति क्या बोले जा रही हो?” - विक्रांत ने कहा। 

“अगर उसके साथ कुछ हो जाता तो, यहाँ पर उसके कोई न कोई निशान जरूर मिलते। जैसे खून, या फिर वह खुद।” - प्रोफेसर ने कहा। 

“सही कहा सर आपने! उसके शरीर के टुकड़े बिखरे हुए मिलते यहाँ।” - विक्रांत ने कहा। 

“उसकी डेड बॉडी को कोई जानवर भी तो ले जा सकता है न यार।”- दीप्ति ने प्रश्न करते हुए कहा। 

“ दीप्ति, दीप्ति घबराओ नहीं। अगर ऎसा होता तो खून के निशान तो मिलते न हमें। नेहा ठीक है और जल्दी ही वो हमें मिल जाएगी।” - प्रोफेसर ने दीप्ति को समझाते हुए कहा। 

“तो सर, वो दिख क्यूँ नहीं रही यहाँ.……? हम सब बुरी तरह से फँस चुके हैं यहाँ।” 
इतना कहते ही दीप्ति बैठ कर रोने लगी। 


कन्धे पर तेज़ जलन से नेहा को होश आया तो उसने देखा कि वह अजनबी लड़का उसके कंधे पर बने खरोंच के निशान पर किसी औषधि का लेप लगा रहा है। ये जलन उसी से हो रही थी। 

नेहा अचानक से खड़ी हो कर एक साइड हो गई और पास पड़े लकड़ी के डंडे को दिखाते हुए बोली - “कौन हो तुम? और हिम्मत कैसे हुई मेरी बॉडी को टच करने की।” 


"मेरा नाम शौर्य है, इस लकड़ी को नीचे रखिए प्लीज। बेफिक्र रहिए आपको मुझसे कोई खतरा नहीं है।” - शौर्य ने अपने दोनों खाली हाथ नेहा को दिखाते हुए कहा। 

“देखो मैं लास्ट वार्निंग दे रहीं हूँ आगे मत बढ़ो।” - नेहा ने पीछे खिसकते हुए कहा। 

“देखिए आपको मुझसे डरने की कोई जरूरत नहीं है। अभी आपको आराम करने की जरूरत है। अगर मुझे आपके साथ कुछ गलत करना होता तो मैं अभी तक कर चुका होता। सो आप बेफिक्र रहिए और आराम किजिए। मुझे आपके घाव में लेप लगाने दीजिए जिससे आपको अच्छा और हेल्दी फील होगा।” 

नेहा को शौर्य पर यकीन हो चला था। क्योंकि उसे उसकी बातों में सच्चाई नजर आ रही थी। 

"कौन हो तुम और चुपके से तुम मुझे वहां क्यूँ देख रहे थे? विक्रांत तो बोल रहा था कि मोहिनीगढ़ में वही एकलौता जिंदा बचा हुआ इंसान है।" 

नेहा ने शौर्य पर सवालों की बौछार कर दी। शौर्य, नेहा की बातों को सुनकर मुस्कुरा रहा था। 
नेहा अभी एक पुराने खंडहर में थी। जो किसी बड़े महल का था। 
“दरअसल बात ये है कि विक्रांत को मेरे बारे में नहीं पता। क्योंकि हम दोनों का मिलना कभी हुआ नहीं इसलिए। यहाँ पर शापित नरभेड़ियों का बसेरा है। वो जानवरों और इंसानों को काटकर शापित कर देते हैं। उसके बाद वो उन्हें अपने जैसे बना लेते हैं या फिर उनको मार कर खा जाते हैं। उन में से आप भी एक हो, आप भी शापित हो!” 


“क्या?” 

“हाँ! तभी आप मोहिनीगढ़ की सीमा को पार करते ही मरते मरते बची। अगर मैं न होता तो आप शायद जिंदा बचती। लेकिन आप तो शुक्रिया अदा करने की वजाय मुझे ही मारने वाली थीं।” 

“सो सॉरी थैंक्स फॉर सेव मी। अब मुझे एक बात तो समझ में आ गई कि मोहिनीगढ़ की सीमा के बारे में, उसका शाप और वेयरवूल्फ़ की बातें सही हैं।” 


“ हाँ।” 

“लेकिन, एक बात मेरे समझ में नहीं आई मैं कैसे शापित हो गई, जबकि भेड़िये ने मुझे काटा ही नहीं।” 


“ये बात भेड़िये पर निर्भर करती है। अगर वह खरोंच से आपको शापित करता है तो इसका मतलब यह हुआ कि वो आपको शापित तो करना चाहता है लेकिन मारना नहीं चाहता।” 


बातों ही बातों में नेहा का ध्यान शौर्य के हाथों पर गया। 


“तुमने ये अपने हाथों में दस्ताने क्यूँ पहन रखें हैं?” 

“वो क्या है न। ये लेप रजत भस्म का मिश्रण हैं और रजत भस्म से मुझे एलर्जी है।” 


“लेकिन, रजत भस्म से एलर्जी तो नर - भेड़ियों को होती है न……?” 

क्रमशः.…… 


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